पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – कृतज्ञतापूर्वक प्रार्थना, विनयशीलता, प्रसादगुणधर्मिता और निस्वार्थ-भावना जीवन सिद्धि के श्रेष्ठतम-सहज उपाय हैं…! प्रार्थना हमारी संस्कृति के प्राण है। भारतीय संस्कृति मानव को ईश्वर की ओर उन्मुख होने का संदेश देती है। प्रार्थना ईश्वर और मानव के प्रति एकत्व का माध्यम है। प्रार्थना व्यक्ति के विचारों एवं इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा एवं नकारात्मक भावों को नष्ट करती है। प्रार्थना व्यक्ति को आंतरिक संबल प्रदान करती है, उसे कर्म की ओर उद्यत करने हेतु आंतरिक बल , उत्साह और आशा प्रदान करती है। विभिन्न धर्मों की पूजा पद्धतियाँ भले ही अलग हों, किंतु प्रार्थना के अंतरस्वर एक ही होते हैं। विश्व के जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, सभी ने कहीं न कहीं ईश्वर से प्रार्थना द्वारा आंतरिक बल प्राप्त किया है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारा प्रत्येक कर्म बनें – भगवान की प्रार्थना। प्रार्थना प्रभु प्राप्ति का सरलतम उपाय है। प्रेममयी भक्ति की प्रक्रिया प्रार्थना में है। प्रार्थना के ये स्वर न केवल देह, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा करते हैं। रोग मिटते हैं, शोक दूर होते हैं, संकट कटते हैं एवं सन्ताप शान्त होते हैं। भगवान हमसे दूर नहीं है। वे भक्त वत्सल भगवान अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, भावभरा प्रेम लिए प्रति पल हमारे साथ हैं। बस उनसे हृदय का तार जुड़ते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी रक्षा के लिए, चिकित्सा के लिए, दुःख-विषाद दूर करने के लिए प्रकट हो जाती है। भावनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हमें सर्वेश्वर की सर्वव्यापी चेतना से एकाकार कर देता है। इस स्थिति में हमारे जीवन में उन प्रभु का असीम ऊर्जा प्रवाह उमड़ता चला आता है। और, फिर उनकी अनन्त शक्ति के संयोग से हमारे जीवन में सभी असम्भव सम्भव होने लगते हैं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – प्रार्थना हमारे भीतर विनम्रता को निमंत्रण देती है। विनम्रता एक ऐसा गुण है जिससे शान्ति फैलती है। विनम्र होना सबसे बड़ी खूबसूरती है। विनम्रता मनुष्य के व्यक्तित्व का आभूषण है। इसके माध्यम से हमारा व्यक्तित्व खूबसूरत बनता है; क्योंकि विनम्र होकर ही हम पात्रता अर्जित कर सकते हैं। विनम्र होकर हम ग्रहण करना सीखते हैं और विनम्रता के कारण ही हम दूसरों से जुड़ पाते हैं। भारतीय संस्कृति में इसी विनम्रता को व्यक्त करने के लिए प्रणाम व अभिवादन करने की परंपरा है। पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि निस्वार्थ सेवा ही धर्म है। प्रेम और निस्वार्थ भक्ति भावना मनुष्य को ईश्वर से जोड़ती है। निस्वार्थ भावना से की गई सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती तथा समय आने पर अपना फल अवश्य देती है। जीवन में ईश्वर कभी भी दिखावे की भक्ति से प्रसन्न नहीं होते। अतः दीन-दुखियों व बेसहारा लोगों की सेवा करना ही वास्तव में सच्ची प्रभु भक्ति है…।
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