पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – एकमात्र उद्देश्य जिसके लिए आप यहां रहते हैं, वह भीतर के स्थायी आनंद का अहसास है…! सुख कभी भी स्थाई नहीं होता। यह कमल के फूल पर पड़ने वाली बारिश की बूंदों की तरह क्षणिक है। इसलिए क्षण भंगूर सुख की बजाय मनुष्य को चिरस्थाई आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके ही मनुष्य आनंदमय हो सकता है। स्मृतियों के सागर में डूबकर या कल्पनाओं के आकाश में विचरण करके जीवन व्यर्थ न गवाएं। हरपल वर्तमान में रहकर भविष्य की योजनाएं बनाकर उच्चस्तरीय गुणवत्तापूर्वक जीवन जीएं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दु:ख की है; एक अनुभूति सुख की है और एक अनुभूति आनंद की है। सुख की और दु:ख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। जबकि आनंद भीतर की अवस्था है। मनुष्य असीम शक्ति का स्वामी है, उसके अंदर अमृत कोष भरा हुआ है। यदि मनुष्य उस कोष को ध्यान साधना से जागृत कर ले और उसे संसार की दिशा से हटा कर ईश्वर के चरणों की ओर लगा ले, तो वह असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है। तब उसकी सभी सांसारिक इच्छाओं की समाप्ति हो जाती है और वह प्रभु के साक्षात दर्शन कर सकता है और, यही मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य भी है..।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आनन्द प्राप्ति ही मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य है। इसके लिए सेवा, स्वाध्याय, सत्संग और स्वात्मोत्थान के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। हर जीव भगवान का अंश है। भगवान स्वयं आनंद हैं। भौतिक आनंद सीमित और अस्थाई होता है। जबकि, आध्यात्मिक आनंद चिरस्थाई और अनन्त होता है। अत: हमारा प्रयास भौतिक सुख प्राप्ति नहीं अपितु, आध्यात्मिक सुख प्राप्ति होना चाहिए। इष्ट से अलग होने का नाम ही भय है, और निर्भयता का नाम ही अध्यात्म है। भयभीत व्यक्ति कभी आध्यात्मिक नही हो सकता। पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि ईश्वर को जानकर ही कोई जीव माया से पार हो सकता है। भगवान इंद्रीय, मन, बुद्धि के प्रेरक हैं। उनका ध्यान करने से जीवन प्रकाशमय बनता है और तभी सच्चे आनंद की प्राप्त होगी..।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – गीता एक दर्पण है, यह महान ग्रंथ हमें सिद्धांत स्थिति का ज्ञान करवाता है। इसका अध्ययन कर व्यक्ति आत्मनिरीक्षण और मनोमंथन द्वारा अपने जीवन को सफल बना सकता है। उन्होंने कहा कि जीवन में गौ, गंगा, गायत्री, गीता और गुरु को संभाल कर रखें। सुन्दर वही है जो समर्थ होते हुए भी अंहकारी नही है। अहंकार मृत्यु है। जहाँ अहंकार नही, वहाँ अमृत है। मनुष्य केवल दो ही प्रकार के होते है – जागृत और सोए हुए। पूज्यश्री जी ने “जो जागत है सो पावत है” …, और, “वीर भोग्य वसुंधरा” … की उक्तियों पर विस्तार से वर्णन करते हुए श्रद्धालुओं को परिश्रमी बनने का आह्वान किया…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवान पर एवं सद्गुरुदेव पर पूर्ण विश्वास रखकर जागृत अवस्था में जीवन जीना ही मोक्ष है। व्यक्ति को उम्र के अंतिम पड़ाव तक कर्मशील रहना चाहिए और सहारा लेने वाला नहीं; बल्कि, सहारा देने वाला बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि जीवन का आरम्भ तीन चीजों से होती है। हम किसी का अनुसरण करते हैं, अनुगमन करते हैं अथवा अनुकरण करते हैं। किसी को अगर कोई प्रेरित तत्व मिल जाए तो वह किसी भी ऊंचाई तक पहुँच सकता है। पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि हर व्यक्ति के भीतर एक खजाना है, लेकिन हम अंदर नहीं खोजते, बल्कि बाहर लोगों से मार्गदर्शन मांगते रहते हैं। अतः ऐसी स्थिति में प्रेरणा देने वाला व्यक्ति पथ प्रदर्शक या सद्गुरू ही हमें भीतर के खजाने की चाभी देते हैं और वही हमें मार्गदर्शन देकर विकास के मार्ग पर अग्रसर करते है…।
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