पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जीवन ईश्वरीय उपहार है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कर्मठता, विवेकशीलता, धर्म ज्ञान-वैराग्य आदि जैसे भगवदीय गुण स्वभावत: मनुष्य को उपलब्ध हैं…! परमात्मा की संपूर्ण कला की रचनात्मकता ही मनुष्यता है। देवसत्ता में जो अलौकिक एश्वर्य है, वह सब मनुष्य की चेतना में विद्यमान है। ईश्वर जहां पूरा-पूरा रमा है वहां धर्म, ज्ञान, वैराग्य भगवान के अलौकिक तथा ऐश्वर्य, यश लौकिक रूप हैं। ईश्वर की प्रतिकृति मनुष्यता ही है। यह अलग बात है कि वर्तमान समय में मनुष्यता के गुण तत्व सुप्तावस्था में हैं और जिन लोगों ने साधना के माध्यम से इनको जीवंत कर लिया है तो वे ज्ञानियों की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। अतः मानव-जीवन को मनुष्य के अनुरूप ही व्यतीत करें, अपने अन्दर की शक्तियों को पहचानें, उन पर विश्वास करें और उन्हें अपने अनुकूल उपयोगी बनाने के प्रयत्न में लग जायें…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ईश्वर का महान उपहार व्यर्थ न चला जाय…! जीवन को ऊँचा उठाना और सुन्दर से सुन्दर बनाना ही मानव जीवन का लक्ष्य है! निरुद्देश्य जीवन बिताने में न तो कोई शोभा है और न ही श्रेय है ! निर्लक्ष्य जीवन बिताना तो पशुओं को भी आता है। मनुष्य जीवन एक ईश्वरीय प्रसाद है, उपहार है। इसका अनादर करना परमात्मा का अपमान करना है। किसी काम के लिए पाये हुए एक छोटे से उपहार को मनुष्य आजीवन सजाकर और संजोकर रखता है। उसे देख-देखकर हर्षित और गर्वित होता है। तब न जाने किस कारण मानव-जीवन जैसे अनिवर्चनीय उपहार की अवहेलना मनुष्य करता रहता है। क्या इसलिए कि यह उसे करुणाकर भगवान द्वारा सहज ही में प्राप्त हो गया है? अतः जीवन खोकर जीवन का मूल्य समझने वालों को युगों तक पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा -जीवन ही जीवन का स्रोत है। समस्त दु:खों का कारण है – अज्ञानता। अज्ञानता के चलते ही भय, चिंता, भ्रम, संशय पैदा होता है, क्योंकि हम अज्ञानता के कारण सत्य का रास्ता छोड़ देते हैं। जब हम वास्तविकताओं से आंख मूंद लेते हैं तो हमारे जीवन में भय, चिंता, भ्रम और संशय पैदा होते हैं। भागवत का यही फल है कि इससे मनुष्य को उसका परिचय मिलता है। मनुष्यता ही ईश्वरीय उपहार और उदारता का रूप है। वास्तव में भागवत-दर्शन का सीधा अर्थ है – अल्पता का नाश अथवा अधूरेपन का विनाश है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आत्मा प्रार्थना से आह्लादित होती है, ज्ञानोपार्जन से आनंदित होती है। कला, संगीत, साहित्य, विज्ञान आदि की रुचि से संतोष प्राप्त करती है। अतः इन सबके लिये किया गया समय का सदुपयोग ईश्वर की आराधना के समान फलदायी होता है..।
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