पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जगत-प्रपंच अंतहीन, अनित्य-अस्थिर, नश्वर और मरणधर्मा है; अतः जीवन में यथार्थबोध के साथ सत्कर्म, परोपकार और परमार्थ ही शुभ परिणाम प्रदाता हैं…! प्रभु भक्ति ही जीवन जीने का एकमात्र आधार है। इसके विपरीत यह संसार और मानव शरीर तो नश्वर है। इनसे मोह और राग करना दु:ख का कारण है। राग और मोह तो शरीर जनित हैं। जब तक हम शरीर और जीवात्मा के अंतर को भलीभांति नहीं जानेंगे तब तक हम मोह और राग से ग्रसित रहेंगे। यही हमारे दु:ख का कारण है। कई बार कोई व्यक्ति स्वयं को अपूर्ण समझता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह स्वयं के बारे में नहीं जानता। जीव अपने आप को तब तक नहीं जान पाता जब तक वह आत्मज्ञान से वंचित है। आत्मानुसंधान आत्मचिंतन के द्वारा ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। एकात्मकवाद का चिंतन अद्वैत दर्शन का सार है। इसमें उपनिषदों का स्वर दिखाई देता है। अंतिम व्यक्ति के हित रक्षण का सम-सामयिक चिंतन है। जो जैव-जगत के कल्याण और सह-अस्तित्व में विश्वास करता है। जन्म-मरण, सुख-दुःख, जय-पराजय जीवन की यात्राओं को कोई अंत नहीं है! किन्तु भगवत-प्राप्ति के बाद इन सभी यात्राओं का स्वतः ही अवसान हो जाता है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परमात्मा के अतिरिक्त सारे रिश्ते-नाते मिथ्या हैं। हमारी हर सांस और जीवन का हर क्षण प्रभु का ऋणी है। यदि हम मानव शरीर पाकर उसके महत्व को नहीं जान पाए तो यह जीवन व्यर्थ चला जाता है। फिर समय निकल जाने के बाद पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचता। चूंकि परमात्मा ने हमें मानव शरीर देकर हम पर असीम कृपा की है, इसलिए यह हमारा दायित्व बनता है कि हम परमात्मा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करें। यदि संसार में हमारे प्रति कोई थोड़ी सी भी सहानुभूति प्रदर्शित करता है तो हमें उसके प्रति चौगुने भाव से कृतज्ञता दिखानी चाहिए। इससे आपस में प्रेम, सौहार्द और सहानुभूति का भाव तो बढ़ता ही है, साथ ही साथ अहंकार, स्वार्थ, भीरुता और हीनता की भावना भी समाप्त हो जाती है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हिन्दुत्व माने मानव धर्म। जीव मात्र का धर्म। हिन्दुत्व या सनातन धर्म की बात करते हैं तो हमारा औदार्य सामने आता है – ‘वसुधैव कुटुम्बकम्…’ का। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु …’ का। सबको अपने जैसा देखो, चूंकि आप कुटुम्ब में हैं। पूरा विश्व ही एक कुटुम्ब माना गया है। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा कि सच तो यह है कि जीवन का संपूर्ण विकास धर्म पालन से ही संभव हो सकता है। मानव जीवन दुर्लभ माना गया है। इसलिए जीवन को सुख-शांति व सौहार्द्रपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम परोपकार के महत्व को समझें। ‘परोपकार’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- पर तथा उपकार। सामान्यत: ‘परोपकार’ से ही मनुष्यत्व और पशुत्व में भेद समझा जा सकता है। मनुष्य एक समझदार एवं सामाजिक प्राणी है और मनुष्य होने के नाते हमारा यह नैतिक कर्तव्य बन जाता है कि हम सब मनुष्यता का परिचय दें। मनुष्य ही मनुष्यता की रक्षा कर सकता है। इस कार्य के लिए कोई दूसरा नहीं आ सकता। याद कीजिए, जब पूरा देश स्वाधीनता संग्राम की आग में जल रहा था तब देश के वीर अपने इस देश के लिए मर-मिटने पर तत्पर थे। अनेक योद्धाओं ने हंसते-हंसते गोलियों का स्वागत किया, फांसी के फंदे पर चढ़ गए। यह बलिदान हमें बतता है कि ऐसे महान लोग दूसरों के लिए कितना चिंतित थे। उस समय लोग अपने लिए नहीं, बल्कि ‘पराए जन’ के लिए जी रहे थे। सच तो यह है कि परोपकार करने से हमारा चित व मन पवित्र बनता है। आज जीवन में यह परम आवश्यक है कि हम सब परोपकार करने के प्रति प्रतिबद्धता जताएं। सभी प्राणियों के प्रति आदर और प्रेम का भाव रखें। हम अपने अलावा दूसरों के लिए भी जीएं। दूसरों के सुख-दु:ख के सहयात्री बनें। समाज में उसी का यश अमर होता है जो सबके प्रति कृतज्ञ और संवेदनशील है। अतः जो कृतज्ञ नहीं है, वह कभी धर्म मार्ग का अनुगामी नहीं हो सकता…।
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