पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शब्द ब्रह्म है ! हमारी अभिव्यक्ति में सत्य-माधुर्य, पावित्रय और अन्य के लिए आदर रहे। अभिव्यक्ति ही हमारे अंतर का परिचय है ..! शब्द ही ब्रह्म है। उसकी ही सत्ता है। सम्पूर्ण जगत शब्दमय है। शब्द की ही प्रेरणा से समस्त संसार गतिशील है। महती विस्फोट प्रक्रिया से जगत की उत्पत्ति हुई तथा उसका विनाश भी शब्द के साथ होगा। इन्द्रियों में सबसे अधिक चंचल तथा वेगवान मन को माना गया है। मन के तीन प्रमुख कार्य हैं – स्मृति, कल्पना तथा चिन्तन। इन तीनों से ही मन की चंचलता बनती है। मन को शब्द का माध्यम न मिले तो उसे चंचलता नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी गति शब्द की बैसाखी पर निर्भर है। सारी स्मृतियाँ, कल्पनाएँ तथा चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। शब्द अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व चिंतन के रूप में होता है। अपनी उत्पत्ति काल में वह सूक्ष्म होता है, पर बाहर आते-आते वह स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष्म है वह हमारे लिये अश्रव्य है। जो स्थूल है वही सुनाई पड़ता है। ब्रह्म की अनुभूति शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म के रूप में भी होती है, जिसकी सूक्ष्म स्फुरणा हर किसी पर सूक्ष्म अन्तरिक्ष में हो रही है। ॐकार को ही प्रणव कहते हैं, यही उद्गीत है। भगवान शिव के डमरू से निकला यही पहला शब्द है। प्रणव महामन्त्र है और यह नाद ब्रह्म तक पहुँचने का एक सशक्त माध्यम है। प्राचीन काल की तरह सामान्य व्यक्ति को भी अतिमानव-महामानव बना देने की सामर्थ्य उसमें मौजूद है। आवश्यकता इतनी मात्र है कि मन्त्र की उपासना के विधि-विधानों तक ही सीमित न रहकर उसके निहित दर्शन एवं प्रेरणाओं को भी हृदयंगम किया जाय और तद्नुरूप अपने व्यक्तित्व को ढाला जाय। यदि पूरी श्रद्धा के साथ मन्त्र का अवलम्बन लिया जा सके तो आज भी वह पुरातन काल की ही तरह चमत्कारी सामर्थ्यदायी सिद्ध हो सकता है …।
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