पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सार्वभौमिक सनातन सिद्धांत, शास्त्र-विधान और गुरू-परम्परा ही श्रेयस पथ प्रकाशक है; अतः शास्त्र-सम्मत, वेदविहित और गुरू उपदेशित मार्ग हितकर है…! भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। गुरु किसी भी धर्म से हो सकता हैं। सभी धर्मो से उपर उठकर एकता और भाईचारे का संदेश हमे गुरु ही तो देता हैं। गुरु का धर्म ‘‘आत्मनों मोक्षार्थ जगहितायच…‘‘ है, अर्थात स्वयं के लिए मोक्ष की प्राप्ति के साथ-साथ सारे जगत का कल्याण करना ही सद्गुरु का धर्म है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है, परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति है, जिसे ईश्वर-प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए। प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था – गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिक बल। उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव। शिष्य में होती थी – गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता। अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण माना गया है। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा – वर्तमान में हमें संघर्ष के बजाय अब समन्वय की ओर जाना पड़ेगा। आज का विज्ञान भी इस परिवर्तन का एक कारण है। तत्व ज्ञान और विज्ञान दोनों के आधार चिंतन है। विज्ञान और आध्यात्म दोनों सत्य को जानने के दो तरीके हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि धर्म का मूल्यांकन विज्ञान की कसौटी पर करना चाहिए। आज की समस्याओं का समाधान विज्ञान और आध्यात्म दोनों के समन्वय से करना होगा। उन्होंने कहा कि सुख तो बढ़े, पर नीति की हानि नहीं हो, इसका ध्यान रखना भी जरूरी है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मुक्ति के लिये ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी जरूरी है। मानव-कल्याण के बिना सृजनहीन अविष्कार व्यर्थ है। आध्यात्म और विज्ञान दोनों का सहारा लेकर चिंतन करना होगा। चिंतन के बाद आचरण करना होगा। चिंतन आचरण में आना चाहिए, तभी उसका अर्थ है। शिकागों धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने ना सिर्फ हिंदु धर्म की उत्कृष्ट दार्शनिक पंरपरा को विश्व के सामने प्रकट किया था, अपितु एक वैश्विक, सार्वभौमिक धर्म की परिकल्पना को भी साकार रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। उन्होंने घोषणा की थी कि ‘‘हम लोग (हिंदु) न केवल सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, अपितु हम सभी धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं‘‘। उन्होंने विशाल जनसमुदाय के समक्ष, विश्व को आह्वान किया कि ‘‘एक ही ओर अग्रसर होने वाले मनुष्यों की कटुताओं की मृत्यु हो‘‘। धर्ममहासभा के अंतिम विदाई भाषण में उन्होंने पुनः सार्वभौमिकता के सूत्र स्थापित करने के प्रयास किए। उन्होंने कहा था कि ‘‘ईसाई को हिन्दु अथवा बौद्ध नहीं होना है, और न ही हिंदु अथवा बौद्ध को ईसाई बनाना है, पर प्रत्येक को चाहिए कि वह अन्य धर्मों के सारभाग को आत्मसात करके पुष्ट हो और अपने वैशिष्टय को बनाये रखकर अपनी प्रकृति के साथ विकसित हो‘‘। सार्वभौमिक अथवा वैश्विक धर्म का आदर्श विकसित करने हेतु स्वामी विवेकानंद जी का यह उद्बोधन बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें सभी धर्मों के सारवान सत्यों को स्वीकार करके, असहमतियों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाने के विचार को बल प्रदान किया गया है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा- स्वामी विवेकानंद के भाषणों से जो बात स्पष्ट होती है, वह धर्म के सार्वभौमिक स्वरूप का विकास करने हेतु बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने इसी धार्मिक उदारता को व्यक्त करते हुए कहा ‘‘साधुता, पवित्रता और दयाशीलता, किसी सम्प्रदाय विशेष की नहीं है, तथा प्रत्येक धर्म में ही अति उन्नत चरित्र के नर-नारियों का जन्म हुआ है। इन समस्त प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजुद यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि केवल उसी का धर्म टिका रहेगा, और अन्य सारे धर्म लुप्त हो जांएगे, तो वह वस्तुतः दया का पात्र है। मैं उसके दृश्य से दुखी हूँ, और उसे स्पष्ट रूप से बताना चाहता हूँ कि समस्त प्रतिरोधों के बावजूद शीघ्र ही प्रत्येक धर्म की पताका पर लिखा होगा – संघर्ष नहीं सहायता, विनाश नहीं – ग्रहण, मतभेद और कलह नहीं – समन्वय और शांति‘‘…। स्वामी विवेकानंद ने कर्म, भक्ति, योग तथा ज्ञान के इन चार साधनों के बीच एकता का सूत्र स्थापित करके धार्मिक संघर्षों तथा विभेदों को समाप्त करने का संदेश दिया था। मनुष्य के आर्थिक कल्याण के लिए भी वे प्रतिबद्ध थे। उन्होंने कहा था कि ‘‘क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना है‘‘। वस्तुतः धर्म के सार्वभौमिक चरित्र की प्राप्ति के लिए वे समाज के निम्न वर्गों के आर्थिक उत्थान को भी प्रमुखता प्रदान करते थे। इस तरह उन्होंने विभिन्न धर्मों के दार्शनिक सत्यों की समीक्षा की, उनके बीच एकता के सूत्र खोजे तथा अतार्किक मान्यताओं का खंडन किया। वे जिस सार्वभौमिक धर्म का भविष्य देखते थे, वह भारतीय दार्शनिक चिंतन की अद्वैतवादी विचारधारा से प्रष्फुटित हुआ था। जो कि समस्त जगत में एकमात्र अव्यक्त ब्रह्म को ही स्वीकार करता है, तथा ब्रह्म की जीव के साथ अभिन्न एकता को प्रतिपादित करता है।सार्वभौमिक धर्म का उद्देश्य किसी एक धर्म की स्थापना तथा अन्य धर्मों के विनाश द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म तथा दर्शन दोनों ही गतिशील हैं और पूर्णता की ओर अग्रसर हैं। अतः सार्वभौमिक धर्म का आदर्श भी प्रगतिशील होना चाहिए…।
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