पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – आत्म-विस्मृति, अज्ञानता और प्रमाद ही समस्त दु:खों की जड़ है। अतः जीवन सिद्धि के लिए निरन्तर भगवद स्मृति बनी रहे ..! जीवन के अनमोल पलों को प्रमाद में व्यतीत नहीं करना चाहिए। प्रमाद यानी आलस्य, भूल और असावधानी। आत्म विस्मृति जीवन की गंभीर भूल है। आत्मा को विस्मृत और उपेक्षित करके जीना अपने आपके साथ घोर अन्याय है। प्रमाद में अपने कीमती जीवन गुजारने वाले को जीवन के अंत में करुणता का शिकार होना पड़ता है। निरंतर इंद्रिय विषय सुखों के पीछे दौडऩे वाले को कहीं भी शरण नहीं मिलती। जो कुबुद्धि के वशीभूत होकर पापकर्म और अन्याय एवं अनीति से धन का अर्जन करते हैं वे यहाँ प्राणियों के साथ वैर का अनुबंध करके परलोक में नरक गति का मेहमान बनते हैं। धन जीवन की आवश्यकता पूर्ति का साधन है। इसका अर्जन न्याय नीति से किया जाना चाहिए। अनीति से कमाये धन से कुछ समय के लिए संपन्न तो बना जा सकता है, मगर प्रसन्न जीवन का मालिक नहीं बना जा सकता। जीवन का लक्ष्य सम्पन्नता ही नहीं, प्रसन्नता प्राप्त करने का होना चाहिए।
जीवन में प्रसन्नता का सम्बन्ध धन से नहीं, बल्कि मन से होता है। जब मन में समता और संतोष होगा तभी व्यक्ति सुख, शांति का अनुभव कर सकेगा। अन्याय अनीति से प्राप्त धन जीवन में अशांति और क्लेश की वृद्धि करता है और एक दिन वह पूरी तरह नष्ट हो जाता है। यदि हर व्यक्ति ज्ञानियों की इस बात पर व्यवहार करने लगे और यह भलीभांति समझने लगे कि मेरा अन्याय से संचित किया हुआ धन नष्ट होने पर मुझे जैसा दु:ख हो रहा है, वैसे ही जिसके धन को मैंने अनाधिकार से ग्रहण किया है उसे भी होता होगा तो वह अन्याय-अनीति करने को तत्पर नहीं हो सकता। जब तक मनुष्य में इस प्रकार के आत्म-भाव और सह-अस्तित्व भावना की कमी रहेगी वह कमी भी वास्तविक सफलता के शिखर पर नहीं चढ़ सकता। अकूत संपत्ति का मालिक होने के बाद भी कोई सुख ओर शाँति नहीं प्राप्त कर सकता। अनाचार और अत्याचार से एकत्रित धन से आज तक कोई सुखी नहीं बन पाया। पूज्यश्री ने कहा कि जो लोग धर्म नीति को प्रधानता देते हुए जीवन यापन करते हैं, जिनके कृत्य शुभ और जिनका लक्ष्य वीतरागता को प्राप्त करके शाश्वत सुख को प्राप्त करना है। अतः जिनका दृष्टिकोण सकारात्मक और विचार उत्तम है वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का त्याग कर देने पर भी दु:खी नहीं होते …।
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यहां पर भगवान श्रीकृष्ण जिस स्मरण की बात कर रहे हैं वह और ही है। एक तो भीतर में याद रहे कि परमात्मा है। और, एक अनुभव किया जाये कि ज्योति है चारों ओर, जो दिखाई पड़ता है, यह जो चारों ओर विस्तार है उसका ही है। इसका बोध बना रहे तो आप कुछ भी काम कर सकते हैं। स्मरण बाधा नहीं बनेगा, क्योंकि कोई भी कार्य स्मरण के लिए ही गांठ सिद्ध होगा। यहां भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन ! तू युद्ध कर और स्मरण भी कर। युद्ध करता हुआ स्मरण कर। इसका एक ही अर्थ है कि युद्ध जो कर रहा है वही है, दुष्मन जो खड़ा है वह भी वही है। कोई भी परिणाम हो हार हो या जीत हो, इन सब में परमात्मा ही है। यह बोध अगर हो तो आप दुकान पर बैठ कर या कहीं भी होकर, युद्ध के मैदान में हों या व्यापार में हों। आपको प्रभु का सतत् स्मरण बना रहेगा। अतः चैतन्य रहकर अपनी निजता के गौरव की अनुभूति, सतत् भगवद-स्मृति और स्वाध्याय परायणता ही श्रेयस्कर है ..।
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