पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – परम चेतना एवं ईश्वरीय संकल्प की साकारता है – मनुष्य। अतः मनुष्य अपनी अनन्तता, व्यापकता, अतुल्य-सामर्थ्य और सनातनता को अनुभूत कर सकता है…! मनुष्य ईश्वर की सृष्टि की उत्कृष्टतम और अत्यन्त महनीय कृति है। मानव जीवन ईश्वरीय उपहार व भवसागर तरण के लिए है। अनुभूत वही कर पाता है जिसके ऊपर परमात्मा अनुग्रह करते हैं। और, परमात्मा अनुग्रह उन्हीं पर करते हैं जो उनका होकर जीते हैं, जो उनकी सच्चे मन से उपासना करते हैं, जो शास्त्रों व धर्मग्रंथों में बताए परमात्मा के मार्ग पर चलकर अपना जीवन संवारने की आकांक्षा रखते हैं अथवा जिनका परमात्मा व उसकी बनाई सृष्टि पर पूरा विश्वास होता है, वे उसके शरणेय होकर परमात्मा से अपने अभिष्ट की पूर्ति करा ही लेते हैं। पौराणिक कथानुसार, सत्यवान के प्राण हरण करके यमदूत जब जा रहे थे तब सत्यवान की पत्नी सावित्री ने अपने पातिवर्त्य-धर्मबल के आधार पर सत्यवान को पुनर्जीवित करा लेने का परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त कर लिया था। संसार में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। जिसने भी परमात्मा के वैराट्य का अनुभव किया, उसने यही देखा कि सर्वत्र सब में एक ही चेतना का संचरण हो रहा है। भारतीय वांङमय में उदाहरण आते हैं, जिनमें यह इंगित है कि यह सारा संसार एक ही तत्व की अनेक रूपों में अभिव्यक्त है। ऋषि-महर्षियों, सिद्ध-साधकों ने परम सत्ता का साक्षात करके ही कहा था – एकं सद विप्राः बहुधा वदंति…। साधक विराट ब्रह्म की असीम चेतना का नाना रूपों में अनुभव कर लेता है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि ईश्वरीय संकल्प की सकारता है – मानवीय देह। जिसने जीवन में सत-संकल्प के द्वारा स्वयं की भीतर छुपी विराटता को अनुभूत कर लिया उसके पास किसी भी प्रकार का अज्ञान व द्वंद्व नही आएगा। मनुष्य का जैसा संकल्प होगा उसे वैसी ही सिद्धियां, सामर्थ व साधन प्राप्त होंगे। जीव और शिव का मिलन होने पर करोड़ों जन्मों के पाप मिट जाते हैं। पूज्य स्वामी जी ने कहा कि तमोगुण रजोगुण से शिथिल होते हैं व रजोगुण सतोगुण से व इसके लिए प्राणी मात्र में मन, कर्म, वचन व दृढ़ता की एक्रागता आवश्यक है। साधक वह है जिसका संसार में किसी से भी कोई परिवाद नहीं होता। उन्होंने कहा परिवाद कम होंगे तो साधना का बल बढ़ेगा व परिवाद ज्यादा होंगे तो साधना का बल घटेगा। हम परिवाद का कारण खोजेंगे तो अपने आपको सामने पाएंगे। शांति के लिए, शांतिमय तौर-तरीके ही अपनाने होंगे, क्योंकि यदि तरीके भी हिंसक हों तब लक्ष्य शांतिमय कदापि नहीं हो सकता। यदि मुक्ति लक्ष्य है, तो उसका प्रारंभ भी मुक्त होना चाहिए, क्योंकि अंत और शुरुआत दोनों एक ही बात है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि नदियां जब तक समुद्र में नहीं मिल जातीं अस्थिर और बेचैन रहती है। मनुष्य की असीमता भी अपने आपको मनुष्य मान लेने की भावना से ढ़की हुई है। उपासना विकास की प्रक्रिया है। संकुचित को सीमा रहित करना, स्वार्थ को छोड़कर परमार्थ की ओर अग्रसर होना, ‘‘मैं’’ और मेरा छुड़ाकर सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया की आदत डालना ही मनुष्य के आत्म-तत्व की ओर विकास की परम्परा है। और, यह तभी सम्भव है जब सर्वशक्तिमान परमात्मा को स्वीकार कर लें अथवा उसकी शरणागति की प्राप्ति हो जाय। उपासना का अर्थ – स्वयं के भीतर विद्यमान परम चेतना को जानना और पहचानना है। भ्रमित मानव यदि मोह निद्रा से जागकर सर्वत्र उस परमात्मा के विराट स्वरूप की झांकी में मात्र झांक कर भी एक बार देख ले तो वह मानव परमात्मा के उन श्रेष्ठ गुणों को धारण करता हुआ इसी धरा पर श्रेष्ठतम जीवन जी सकने में सक्षम हो सकता है। उसके द्वारा सदाचरण से होने वाले सद्व्यवहारों से संसार भी उपकृत होता जाता है। मनुष्य जन्म की सार्थकता भी तो इसी में है…।
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