न्यूज़ डेस्क : सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार पर किसी देश की खुशहाली जानी जा सकती है या नहीं, ये सवाल लंबे समय से दुनिया में बहस का मुद्दा रहा है। अब विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट से यह तर्क देने वालों को बल मिला है कि जीडीपी और किसी समाज की असल खुशहाली में फर्क है। अनेक अर्थशास्त्रियों की ये राय पहले से रही है कि कोई समाज कितना खुशहाल है, इसका पैमाना केवल यह हो सकता है कि वहां आम आदमी की जेब में उसके जीडीपी का कितना हिस्सा पहुंचता है, वहां के समाज में कितनी बराबरी है और उसने अपने पर्यावरण की कितनी रक्षा की है।
विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट उसके आईसीपी यानी इंटरनेशनल कंपेरिजन प्रोग्राम (अंतरराष्ट्रीय तुलना कार्यक्रम) के तहत तैयार की गई है। ये रिपोर्ट हर पांच साल पर तैयार की जाती है। ताजा जारी रिपोर्ट 2017 के आंकड़ों पर आधारित है, क्योंकि उसी वर्ष के सारे देशों के आंकड़े उपलब्ध हो सके। यह रिपोर्ट 176 देशों के अध्ययन के आधार पर तैयार की गई है। इसके मुताबिक 2017 में दुनिया सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति जीडीपी लक्जमबर्ग की (एक लाख 13 हजार डॉलर) थी। उसके बाद आयरलैंड, बरमूडा, केमैन्स द्वीप, स्विट्जरलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, नॉर्वे और ब्रुनेई का नंबर था।
रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है कि इन देशों में दुनिया की महज आधा फीसदी आबादी रहती है। इन दस देशों की साझा आबादी तीन करोड़ 80 लाख है, जबकि दुनिया की आबादी इस वक्त सात अरब 80 करोड़ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जीडीपी को किसी देश के वास्तविक धन का पैमाना समझने में सावधानी बरतने की जरूरत है।
मशहूर अर्थशास्त्री और अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अंगस डेटॉन ने इस रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस सूची के शीर्ष 10 देशों को शायद ही वैसे देशों में रखा जाता है, जहां लोगों का जीवन स्तर सबसे ऊंचा है। डेटॉन ने ये बात हमेशा ध्यान में रखने की सलाह दी कि प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़े में हर व्यक्ति के पास उतना धन माना जाता है, जो असल में उसके पास नहीं होता।
विश्व बैंक की आईसीपी टीम ने इस रिपोर्ट में हर देश की जीडीपी को उसकी मुद्रा की विनिमय दर और मुद्रा की खरीद शक्ति समतुल्यता (परचेजिंग पॉवर पैरिटी यानी पीपीपी) के रूपों में पेश किया है। जीडीपी का मूल्य मुद्रास्फीति की दर और विनिमय दर से भी प्रभावित होता है। लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इनमें रोजमर्रा के बदलाव से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। मोटे तौर पर किसी देश के जीडीपी को विनिमय दर और पीपीपी के अर्थों में आंका जाता है और यह मूल्य कमोबेश स्थिर रहता है।
चीन और अमेरिका की जीडीपी की तुलना
रिपोर्ट के मुताबिक 2017 के अंत में दुनिया की जीडीपी विनिमय दर के रूप में 80 खरब डॉलर थी, जबकि पीपीपी के रूप में यह 120 खरब डॉलर थी। इन दोनों रूपों में क्या फर्क होता है, इसे समझने के लिए अगर हम दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी अमेरिका और चीन की जीडीपी की तुलना करें, तो बात साफ हो सकती है। 2019 के अंत में विनिमय दर के लिहाज से चीन की जीडीपी 14.34 खरब डॉलर थी, जबकि अमेरिका की 21.37 खरब डॉलर। लेकिन पीपीपी के रूप में चीन और अमेरिका दोनों लगभग बराबर थे।
तब पीपीपी के रूप में चीन और अमेरिका, दोनों की जीडीपी लगभग 20 खरब डॉलर थी। यहां पीपीपी का मतलब यह है कि एक डॉलर में अमेरिका में कितनी चीजें खरीदी जा सकती हैं और कितनी चीन में। इस रिपोर्ट ने अलग-अलग देशों में आजीविका जुटाने के लिए लगने वाले मूल्य का आकलन देकर विकास की बहस में नए तथ्य उपलब्ध कराए हैं। इसमें हर देश में वास्तविक व्यक्तिगत उपभोग (एआईसी) को मापते हुए जीडीपी का आकलन किया गया। बेशक असल सवाल यही है कि किसी देश में आम इंसान को क्या भौतिक सुविधाएं उपलब्ध हैं।
दुनिया के 70 देश उच्च आय श्रेणी में: रिपोर्ट
इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 70 देश उच्च आय श्रेणी में हैं। इन देशों की प्रति व्यक्ति जीडीपी 12,376 डॉलर से ज्यादा है। लेकिन इन देशों में दुनिया की सिर्फ 16.6 फीसदी आबादी रहती है। 30 देश निम्न आय की श्रेणी में हैं। यहां प्रति व्यक्ति जीडीपी 1,025 डॉलर या इससे कम है। पूर्व एशिया एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका विश्व के जीडीपी में जितना हिस्सा है, लगभग उतनी ही वहां आबादी रहती है। इस क्षेत्र का विश्व जीडीपी में हिस्सा 31.1 फीसदी है, और वहां दुनिया की 31.5 फीसदी आबादी रहती है।
दक्षिण एशिया में दुनिया की 23.9 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन इसका विश्व जीडीपी में योगदान महज 8.5 फीसदी है। उत्तर अमेरिका में दुनिया की पांच फीसदी आबादी है, जबकि विश्व जीडीपी में उसका योगदान 17.8 फीसदी है। यूरोप में दुनिया की 12.1 फीसदी आबादी है, जबकि वहां विश्व जीडीपी का 25.8 फीसदी उत्पादन होता है।
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