पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – वृक्ष-नदी, पवन-प्रकाश एवं सभी पारमार्थिक रूपों में अभिव्यक्त परमात्मा ही जगत के उद्भव और विकास का मूल है, अतः ईश्वर ही हमारे परम अभिभावक हैं। अपनी संतति-शिष्यों से निःस्वार्थ प्रेम व उनकी हितसिद्धि हेतु सदा तत्पर जननी-जनक और गुरु के प्रति देव-भाव रखें ..! प्रभु भक्ति के आगे सांसारिक सुख तुच्छ है। भक्ति विश्वास से आरम्भ होती है। भक्ति ईश्वर के प्रति तीव्र प्रेम है। जब सद्गुरु किसी के जीवन में आते हैं और ज्ञान तथा दैविक प्रेम को बरसाते हैं, तब ईश्वर और गुरु के प्रति भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती है। “प्रेम हमारी साधना है, प्रेम हमारा पंथ है। जो भरा है प्रेम से, वही हमारा संत है”।। प्रेम पशु-पक्षियों की आँखों में भी पढ़ा जा सकता है तो फिर प्रेम मनुष्य के हृदय में क्यों नहीं होना चाहिए? मनुष्य के हृदय में तो अथाह सागर है, प्रेम का। बस आवश्यकता है तो उसे ग्रहण करने की, जीवन में अपनाने की। प्रेम ईश्वर की पूजा माना गया है। प्रेम ग्रहणीय है।
Related Posts
प्रेम की आराधना करने वाला ही नैसर्गिक आनंद की अनुभूति करता है और वही इसका अधिकारी भी है। प्रेम सहज एवं स्वाभाविक है, बीज रूप है तथा व्यक्तित्व की आधारशिला है। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य की परम्परा अति प्राचीन है। प्राचीन काल से ही गुरु भक्ति की महान मर्यादा रही है। गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान शिष्य को सौंप देते हैं और शिष्य को भूत, वर्तमान व भविष्य से परिचय करवाते हैं। भारत में सदा ही सद्गुरु की महिमा गाई जाती रही है। गीता में कहा गया है कि जीवन को सुंदर बनाना, निष्काम और निर्दोष करना ही सबसे बड़ी विद्या है। इस विद्या को सिखाने वाला ही ‘सद्गुरु’ कहलाता है।सद्गुरु मनुष्य को एक नई दृष्टि प्रदान करते हैं, जिससे हमें घटनाओं को उचित परिप्रेक्ष्य में देखना आ जाए। वे हमारे अंत:करण में कर्तव्य का अहंकार नष्ट कर देते हैं। वे हमें भक्ति का ऐसा उपाय बताते हैं, जिसके माध्यम से हम अपने इष्ट को प्राप्त कर सकें। इस प्रकार जब हमारी भक्ति तीव्र हो जाती है तथा चरम पर पहुँच जाती है, तब हम ईश्वर से एकाकार हो जाते हैं …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य परमात्मा के दर्शन भौतिक आंखों से करना चाहता है। अध्यात्म अनुभव का क्षेत्र है जैसे – हम वायु को देख नहीं सकते, केवल अनुभव कर सकते हैं, ठीक उसी तरह अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोग स्थूल-जगत में देखे नहीं जा सकते, केवल उनके परिणामों को देखा जा सकता है। वर्तमान युग में ईश्वर के प्रति आस्था की कमी के कारण तनाव बढ़ रहा है। आजकल हर व्यक्ति किसी ने किसी रूप में तनाव से ग्रसित है। इसका मुख्य कारण ईश्वर के प्रति आस्था की कमी है। आपकी प्रार्थना में आस्था का भाव हो तो परमात्मा अापकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार करेंगे। संसार में मोह माया के बंधनों में रहकर ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं की जा सकती है। इसलिए व्यक्ति युवावस्था में रह कर मोह का त्याग कर ईश्वर प्राप्ति के साधन ढ़ूढ़े। मनुष्य जब वृद्धावस्था में पहुंचता हैं तब वह प्रभु के शरण में जाने का प्रयास करता हैं। लेकिन तब तक जीवन का बहुमूल्य समय काफी पीछे छूट जाता है।
अतः मनुष्य को चाहिये कि वह सुख-दु:ख दोनों में भगवान का भजन करे, जिससे समय आने पर आत्मा परमात्मा में लीन हो सके। सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं होती। श्रीकृष्ण के प्रति मीरा का अगाध प्रेम हो या त्रेता में केवट का भगवान के प्रति प्रेम; सभी में निस्वार्थ प्रेम की अविरल धारा बहती है। ईश्वर के प्रति भक्ति निष्काम भाव से होनी चाहिये, तभी मनुष्य ईश्वर का दुलारा बनता है। भगवान ने भक्ति में कभी जाति को नहीं, बल्कि भक्त के भावों को महत्व दिया है। गंगा के पावन तट पर केवट ने कहा कि यह मेरा सौभाग्य है कि प्रभु आज मेरे द्वार आए हैं। प्रेम व भक्ति में लीन केवट ने भगवान श्रीराम के चरणोदक का रसपान कर जीवन को धन्य बना लिया। इस अवसर पर केवट ने कहा कि प्रभु आप को ब्रह्मा एवं शंकर आदि भी नहीं समझ पाए तो मैं तो एक तुच्छ सेवक हूं। केवट ने निवेदन करते हुए कहा कि प्रभु इस दास को भूलना मत। जब यह दास आप के धाम आए तो प्रभु हमें भी पार लगा देना …।
Comments are closed.