गोपेश्वर : सीमा पर जहां पलायन से गांव खाली हो रहे हैं। केंद्र सरकार गृहमंत्री सीमावर्ती क्षेत्रों में सुविधाएं बढ़ाकर पलायन रोकने की बात कर रहे हैं। ऐसे में एक पूर्व फौजी ने नीती घाटी में सेब का उत्पादन कर लोगों में घर बैठे ही रोजगार की नई उम्मीद जगाई है। हालांकि विपणन के लिए सरकारी व्यवस्था न होने के कारण सेब किसानों को अपने संसाधनों में ही बाहरी राज्यों में सेब बेचने को भेजना पड़ रहा है।
चमोली जिला भारत तिब्बत चीन सीमा से लगा हुआ है। सीमावर्ती गांवों के लोगों को द्वितीय रक्षा पंक्ति के रूप में भी जाना जाता है। दूसरे देश की घुसपैठ हो या कोई अन्य खबरें। सरकार को भी सीमावर्ती गांवों के लोगों से ही सबसे पहले इसका पता चलता है। सीमावर्ती क्षेत्रों में लगातार पलायन बढ़ रहा है। अधिकतर गांव खाली होते जा रहे हैं। लोग रोजगार की तलाश में मैदानी क्षेत्रों की ओर कूच कर रहे हैं। ऐसे दौर में जेलम गांव के पूर्व फौजी इंद्र सिंह बिष्ट ने सेब का उत्पादन कर स्थानीय स्तर पर ही रोजगार की आस जगाकर पलायन को रोकने के लिए अन्य लोगों को प्रेरित किया है। असल में इंद्र सिंह बिष्ट अस्सी के दशक में सेना से सेवानिवृत्त हुए।
सेवानिवृत्त होने के बाद पूर्व फौजी कोटे से उन्हें नौकरी मिल रही थी। परंतु इंद्र सिंह ने नौकरी के बजाए घर पर ही रोजगार पैदा करने की ठानी। 1983 में वे हिमाचल के भ्रमण पर गए। तो यहां सेब के बागान देखकर उन्होंने अपने गांव जेलम में भी सेब का व्यापक स्तर पर उत्पादन करने की ठानी।
हिमाचल से घर आने के बाद इंद्र सिंह बिष्ट ने गांव में अपनी भूमि पर सेब की पौध लगाई। धीरे धीरे उन्होंने 50 नाली भूमि पर वृहद पौधरोपण किया। 1990 में इंद्र सिंह बिष्ट द्वारा लगाई गई सेब की पौध से सेब की पैदावार भी शुरू हुई। उन्होंने इस सेब को पहले स्थानीय बाजार और बाद में अपने संसाधनों से देहरादून, सहारनपुर, दिल्ली की मंडियों तक पहुंचाया। आज इंद्र सिंह बिष्ट अकेले प्रतिवर्ष 90 से लेकर 100 कुंतल तक सेब का उत्पादन कर प्रतिवर्ष आठ से दस लाख तक की कमाई कर लेते हैं।
सेब के साथ काला जीरा व नासपाती भी उगा रहे
जेलम गांव में सेब के बागान के बीच खाली पड़ी भूमि पर इंद्र सिंह बिष्ट नासपाती व काला जीरा भी उगा रहा है। सेब के साथ नासपाती भी बाजार तक पहुंचाई जाती है। इसके अलावा काला जीरा को भी वे अपने प्रयासों से बाजार तक पहुंचा रहे हैं। काला जीरा की कीमत एक हजार रुपए प्रति किलो के करीब है। इंद्र सिंह बिष्ट द्वारा सेब के बागान में काला जीरा उगाने के बाद अब अन्य काश्तकार भी प्रेरित होकर इस प्रकार का कार्य कर रहे हैं।
ये सेब उगा रहे हैं काश्तकार
डेलीसस, रॉयल डेलीसस, गोल्डन डेलीसस, रायमर आदि प्रजाति
विपणन की नहीं है सुविधा
इंद्र सिंह बिष्ट व अन्य सेब उत्पादक प्रतिवर्ष जोशीमठ में ही 3200 मैट्रिक टन सेब का उत्पादन करते हैं। परंतु बाजार की व्यवस्था न होने के कारण काश्तकारों का अधिकतर सेब खेतों में ही डंप रहता है। कुछ जंगली जानवर खा जाते हैं तो कुछ सड़ भी जाता है। ऐसे में सेब उत्पादकों को आर्थिक संकट का सामना भी करना पड़ता है। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में जोशीमठ के अलावा पीपलकोटी में भी मंडी की घोषणा की गई थी। जिस पर आज तक अमल नहीं हो पाया है।
सेब उत्पादक इंद्र सिंह बताते हैं कि आज सीमावर्ती गांवों से पलायन बढ़ रहा है। उन्होंने सेब का उत्पादन कर अन्य लोगों को भी इससे रोजगार प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया है। पलायन कर चुके कई लोग आज वापस गांवों में आकर सेब का उत्पादन कर रहे हैं। सेब उत्पादन के बाद विपणन की सुविधा न होने के कारण हमें दिक्कत होती है। अपने संसाधनों से ही हमें सेब का बाजार व बाहर की मंडियों तक पहुंचाना पड़ता है।
उद्यान निरीक्षक डीपी डंगवाल ने बताया कि सीमांत जोशीमठ विकासखंड की जलवायु सेब उत्पादन के लिए उचित है। जेलम गांव में सेब उत्पादक इंद्र सिंह बिष्ट ने उल्लेखनीय कार्य किया है। उनकी देखादेखी अन्य किसान भी सेब उत्पादन से जुड़ रहे हैं। इससे पलायन भी कम हुआ है।
News Source: jagran.com
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