नई दिल्ली। साढ़े तीन साल पहले संपन्न लोकसभा चुनाव से काफी पहले ही भ्रष्टाचार नामक मुद्दे की पूर्वपीठिका लिखी जा चुकी थी। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद के दिनों में इस मुल्क में सतह पर दिखने वाले मुद्दों में भ्रष्टाचार से बड़ा कुछ नहीं था। संसदीय राजनीति में इसके दो परिणाम साफ तौर पर देखे गए। केंद्र में संप्रग-2 की सरकार बदली और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने। चुनावी अभियान के दौरान उस वक्त भाजपा के पीएम पद के दावेदार नरेंद्र मोदी और आम आदमी पार्टी के केजरीवाल ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मोर्चे पर घेरा। जनता ने इन दोनों पर यकीन जताते हुए कुर्सी सौंपी।
मोदी ने इसके बाद के भाषणों में दर्जनों बार इस बात का एलान किया कि सरकार के साथ पार्टी के भीतर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे। ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ की उद्घोषणा के बाद अवाम को एकबारगी ये जरूर लगा कि भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार को लेकर दिख रहे लचीलेपन का दौर गुजरने को है। भाजपा ने इसके बाद कई विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की और इस वक्त यह पार्टी ऐतिहासिक उत्कर्ष पर है। कांग्रेस मुक्त भारत की दावेदारी को जमीन पर उतारने की कोशिश के दौरान क्या भाजपा सचमुच भ्रष्टाचार के खिलाफ उतने ही कड़े कदम उठा रही है जितनी उससे उम्मीद थी?
भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार हमेशा विपक्ष का पसंदीदा मुद्दा रहा है। राजकोष से ‘जनता के पैसों की लूट’ को रोकने का दावा हमेशा वोट में अनूदित होने की संभावना समेटे होता है। इससे विपक्ष को आक्रामकता तो मिलती ही है, लेकिन अगर सत्ता पक्ष ने सच में कोई कड़े कदम न उठाए तो उसका खोखलापन भी उजागर होता है। भाजपा ने इस दौरान हर प्रदेश में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की बात कही और कई चुनावों में जीत हासिल की। सबसे ज्यादा कांग्रेस को भुगतना पड़ा। कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दलों को भी, लेकिन ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान में भाजपा ने कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से आयातित जिन नेताओं को जगह दी, उन पर खुद भाजपा ने पहले भ्रष्टाचार के दर्जनों आरोप लगाए थे।
इस मामले में पश्चिम बंगाल में मुकुल रॉय से लेकर भ्रष्टाचार के आरोप में जेल काट चुके हिमाचल प्रदेश के नेता सुखराम तक नामों की लंबी फेहरिश्त है, जो पहले भाजपा के निशाने पर रहे, लेकिन वक्त व जरूरत के हिसाब से भाजपा ने इन्हें अपनाया। भ्रष्टाचार के आरोपी कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने छह साल पहले भाजपा से अनबन के बाद अपनी नई पार्टी ‘कर्नाटक जनता पक्ष’ बनाई, लेकिन साल भर के भीतर वह फिर से भाजपा में आ गए। केंद्र में मोदी की सरकार आने के दो साल बाद 2016 में उन्हें कर्नाटक में भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया। इस साल प्रदेश में चुनाव लंबित है और वे वहां भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में से एक हैं। अगर 2014 के बाद से अलग-अलग प्रदेशों में सत्तारूढ़ भाजपा पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगाए गए हैं।
मोदी ने कालाधन और भ्रष्टाचार पर कार्रवाई के एलान के साथ नोटबंदी का एलान किया था, लेकिन अब तक न तो कालेधन को लेकर कोई ठोस आंकड़ा जारी हुआ और न ही इसके जरिए भ्रष्टाचार में आई कमी का कोई आधिकारिक अध्ययन पेश किया गया। इस दौरान पनामा और पैराडाइज पेपर्स लीक में सैंकड़ों लोगों के नाम उजागर हुए, जिनपर कार्रवाई का दावा सरकार जरूर कर रही है, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई देखने को मिली नहीं है। ऐसे में विपक्ष के तौर पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने और सत्ता में आने के बाद के आचरण के बीच के फर्क को अगर भाजपा नहीं भर पाई है तो इसे भारतीय राजनीति में येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की परंपरा का हिस्सा माना जा सकता है। अनिवार्यत: इस मुल्क में भ्रष्टाचार विपक्ष का ही मुद्दा है।
News Source :- www.jagran.com
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