न्यूज डेस्क : पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सनातन संस्कृति सिखाती है कि रूप, गुण, धर्म और विविधताओं के बाद भी सभी प्राणियों में एक ही सत्ता अर्थात् ‘ब्रह्म’ विद्यमान है। इसी सत्य “आत्मबोध” से जाति, धर्म और संस्कृति के भेद मिटते हैं। आज का संसार भोगवाद और अहंकार से ग्रस्त है, जिसका समाधान भारतीय दर्शन में निहित है। जब हम सभी में उसी अविनाशी तत्व को देखेंगे, तो पारस्परिक विद्वेष और संघर्ष स्वतः ही समाप्त हो जायेगा।
आदिगुरु शंकराचार्य ने भी कहा है कि जब तक हम अपने आत्म स्वरूप में नहीं पहुँचते हैं, यह संसार दृष्टिगोचर होता है। जैसे ही हम अपने स्वरूप में आते हैं, यह संसार रूपी स्वप्न खो जाता है। यदि कुछ रह जाता है तो वह है – सत्य रूपी ब्रह्म; जो सर्वव्यापक है। ध्यान रहे ! जो जागरूक है और जीवन में हर पल सचेत व सजग रहता है, उसे ही करुणा के सागर परमपिता का दर्शन होता है। मानव जीवन में अनन्त सम्भावनाएँ हैं, असम्भव को सम्भव करने और दुर्लभ को सुलभ बनाने की क्षमता मनुष्य में जन्म से ही विद्यमान है।
हम साधारण मानव नहीं, ईश्वर के अंश हैं, अनन्त शक्तियों के भण्डार हैं। मानव जन्म विराट बनने की तैयारी है, सम्पूर्णता की तैयारी है, समग्रता की तैयारी है, ईश्वरत्व की तैयारी है। एक-एक बालक ईश्वर की अनन्त शक्तियों का पुँज है । किसी में आद्यगुरु शंकराचार्य तो किसी में स्वामी रामतीर्थ, महात्मा बुद्ध तो किसी में महावीर स्वामी, किसी में विवेकानन्द जी, तो किसी में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता छुपी है।
आवश्यकता है तो केवल उन्हें सही दिशा देने की। मन के अन्दर का संकल्प ही बाह्य जगत में नवीन आकार ग्रहण करता है। जो परिकल्पना, चित्र अन्दर उत्पन्न होता है, वही बाहर स्थूल रूप में प्रकट होते है। धर्मसाधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है। जन्म लेना और फिर अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करते-करते मर जाना जीवन की परिभाषा नहीं है, मनुष्य जीवन की तो कतई नहीं। मनुष्य के रूप में जन्म की शास्त्रों में प्रशंसा ऐसे ही नहीं की गई है। देवता भी मनुष्य जीवन प्राप्त करने को तरसते हैं। इसका कारण है, इस जीवन में छिपी अनन्त सम्भावनाएँ।
स्वयं को सही रूप में जानना इस जीवन की सफलता है। इसे आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, मुक्ति, निर्वाण, इष्ट प्राप्ति आदि कई नामों से संबोधित किया जाता है। आत्मोन्नति ही मनुष्य का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मूल साधन धर्म है। धर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्मत्व जीवन का नियामक है। धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित हैं, बल्कि परिचित भी हैं। मनुष्य इस विषय में अनेक अंशों में स्वाधीन है। अन्य जीव प्रकृति के अधीन हैं। अत: धर्मसाधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है …।
🌿 “पूज्य प्रभुश्री जी” ने कहा – बाह्य जगत की सम्पूर्ण उपलब्धियाँ उच्च पद प्रतिष्ठा व विविध पदार्थ निसंदेह प्रशंसनीय और आदरणीय हैं, किन्तु पवित्र अंत:करण की अवस्था में अनुभूत आनन्द और शान्ति जीवन की सच्ची निधि हैं। मन की शान्ति के समक्ष सभी मूल्यवान वस्तुएँ गौण हैं; अतः सहज-शान्त-प्रसन्न रहें। जहाँ अशान्ति है, वहाँ शान्ति लाओ, जहाँ निर्बलता है, वहाँ शूरता है, जहाँ अंधेरा है, वहाँ प्रकाश है, जहाँ निराशा है, वहाँ आशा है। आइए ! हम हर जगह आनन्द, प्रेम और करुणा की दिव्य भावना प्रचारित करें। महर्षि पतंजलि ने अपने ‘योगशास्त्र में लिखा है, जिसका आशय है – ‘चित्त की वृतियों को रोकना ही ‘योग’ है। योग शब्द का अर्थ है – जोड़ना या मिलाप । योग शब्द का भावार्थ आत्मा का परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ना या फिर मिलन है। हमारे धर्मशास्त्रों ने योग को मुक्ति का साधन बताया है और कहा है कि योग से चित्त निर्मल होता है और व्यक्ति अपने आवेगों-संवेगों पर नियंत्रण कर सकता है।
प्रेम का मार्ग योग है और व्यक्ति अपनी जकडऩों को तोड़कर वाह्य आडंबर को चकनाचूर कर अपने अन्दर स्फुटित होने वाली आनन्द की तरंगों का अनुभव करता है। मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि ‘यह चंचल और अस्थिर मन जहाँ-जहाँ दौड़कर जाए, वहाँ-वहाँ से हटाकर बार-बार इसे परमात्मा में ही लगाना चाहिए – यही योग है। “पूज्य प्रभुश्री जी” ने कहा – ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल मनुष्य मात्र होने से ही उसे धर्म ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता, क्योंकि आज भी ऐसे लोग हैं जो न तो धर्म से परिचित हैं और न ही धर्म का अनुशीलन करते हैं। जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते हैं, यथार्थ में वे ही मनुष्य हैं। और, जो आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि में रत हैं वे मनुष्य शरीर में पशु हैं। अत: मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कर्त्तव्य है। परमात्मा ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है, जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा जा सकता है। इसी साधना-क्षमता के कारण मनुष्य सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना है …।