इन बेटियों की कहानी भी है ‘दंगल’ जैसी, झोपड़ी में पली-बढ़ी ये बेटियां अब ऐसे बना रही है अपना नाम

बागपत। आमिर खान की फिल्म दंगल की ही तरह की कहानी है नीलम और मेघना की। फर्क सिर्फ इतना है कि फिल्म में अपनी बेटियों को रेसलर बनाने के लिए गीता और बबीता के पिता समाज से लड़ाई लड़ते हैं पर नीलम और बबीता को रेसलर बनाने के लिए इनकी मां ने बहुत मेहनत की।

बेटियों की सफलता की यह कहानी मां के संघषों की बुनियाद पर टिकी है। नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की रेसलर (कुश्ती खिलाड़ी) हैं। गले में तमाम मेडल हैं। लेकिन, यहां तक पहुंचने का यह सफर बोरियों और तंबुओं के एक डेरे से शुरू हुआ था। एक मां की परवरिश, उसके संघषों ने उस तंबू को ऐसा विस्तार दिया कि बेटियों के सामने अब सफलता का खुला आसमान है।

बेटियों को इसलिए बनाया पहलवान

जमीन के विवाद में पति के कत्ल के बाद लक्ष्मी देवी की मानो दुनिया उजड़ गई। घर, गांव छूट गया। लेकिन, लक्ष्मी बिखरे हौसले को तिनका-तिनका सहेजती रहीं, अपनी बेटियों के लिए। बेटियों को बचाने के लिए उन्होंने जो प्रण किया, उसकी दृढ़ता, उसका तेज आज बेटियों के तेवर में साफ दिखाई पड़ता है। विधवा मां ने बेटियों को पहलवान बनाने की ठानी। इसलिए नहीं कि वे मेडल जीतें, बल्कि खुद की रक्षा कर सकें। बेटियों को पहलवान बनाने के इरादे पर जिस गांव ने उनका बहिष्कार कर दिया था, आज उसी गांव के लोग उन बेटियों पर गर्व करते हैं।

ऐसे शुरू होती है कहानी 

जीवन अपनी रफ्तार से चल रहा था। 1993 में जमीन विवाद में लक्ष्मी देवी के पति रणधीर तोमर की हत्या कर दी गई। बेटियां छोटी थीं। जैसे तैसे खुद को संभाला तो नई मुश्किल सामने थी। पति के हत्यारोपी जेल से बाहर आ गए और धमकाने लगे। गांव छोड़ने के अलावा कोई रास्ता न बचा। बरनावा के पास संतनगर में शरण ली। लेकिन, न कमाई का कोई जरिया और न रहने का इंतजाम। एक खाली जगह पर प्लास्टिक की बोरियों और पॉलीथिन की मदद से झोपड़ी बनाई और रहना शुरू किया। लेकिन दरिंदे यहां भी पीछा नहीं छोड़ रहे थे। धमकियां लगातार मिल रही थीं। लक्ष्मी को अपनी फिक्र नहीं थी, लेकिन बेटियों को लेकर वह चिंतित थीं। बेटियां अपनी सुरक्षा खुद कर सकें, इसी सोच से दाहा के एक छोटे-से अखाड़े में उन्हें भेजना शुरू किया। पहले बड़ी बेटी नीलम को भेजा। दोनों बेटियां शारीरिक तौर पर मजबूत बनें, इसके लिए लक्ष्मी देवी सुबह-शाम अपने सामने दौड़ लगवाती थीं। नीलम ने अखाड़े में धोबी-पछाड़ लगाना शुरू कर दिया तो मेघना को भी पहलवान बनाने की ठान ली।

आसान यह भी नहीं था 

लक्ष्मी ने बेटियां को अखाड़े भेजना शुरू किया तो यह बात पंचायत को नागवार गुजरी। लेकिन, जब नीलम और मेघना ने आंखों से आंख मिलाकर समाज का सामना शुरू किया तो समाज विरोध में उठ खड़ा हुआ। रेसलिंग की ड्रेस और बाल कटवाने को लेकर पंचायत में विरोध हुआ। गांव के लोगों ने बातचीत तक बंद कर दी। लेकिन, अब पहलवान बेटियां की हिम्मत और हौसला मजबूत हो चला था। वे पीछे हटने को तैयार नहीं थीं। बेटियों ने बिना डरे और बिना पीछे हटे खुद को रेसलिंग में पूरी तरह समर्पित कर दिया। गांव से 12 किमी दूर अखाड़े में नीलम और मेघना छह घंटे अभ्यास करने लगीं।

और बन गईं राष्ट्रीय खिलाड़ी

धीरे-धीरे मेहनत रंग लाने लगी। नीलम तोमर ने छह बार स्टेट लेवल पर गोल्ड मेडल जीता है। 2009 में नेशनल लेवल पर सब-जूनियर में सिल्वर, 2010 में गोल्ड, 2011 जूनियर में सिल्वर जीत कर नीलम ने खुद को साबित किया। 2015 में नीलम को राष्ट्रीय प्रतियोगिता में कांस्य पदक मिला। मेघना ने भी राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में छह पदक जीते हैं। पिछले साल मेघना को राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला। दोनों बहनों का संघर्ष जारी है। मेघना स्नातक कर चुकी हैं।

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