पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मनुष्य जीवन स्वयं के संकल्प का विस्तार है। परमात्मा की अनन्त शक्तियाँ एवं अतुल्य सामर्थ्य स्वयं में समाहित हैं। अतः स्वयं की निजता बोध का अर्थ है – परम-आनन्द और परम-ऐश्वर्य का अवबोध..! उन्नति की आकाँक्षा रखना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है, उसे आगे बढ़ना भी चाहिये, पर यह तभी संभव है जब मनुष्य का संकल्प बल जागृत हो। जो लोग अपने को दीन, हीन, असफल और पराभूत समझते हों, संकल्प उनके लिये अमोघ अस्त्र है। पुराणों में ऐसा वर्णन आता है कि स्वर्ग में एक कल्प-वृक्ष है जिसके पास जाने से कोई भी कामना अपूर्ण नहीं रहती है। ऐसा एक कल्पवृक्ष इस पृथ्वी में भी है और वह है – संकल्प का कल्पवृक्ष। जब किसी लक्ष्य की, ध्येय की, कामना की पूर्ति का हम संकल्प लेते हैं तो सजातीय विचारों, सुझावों की एक शृंखला दौड़ी हुई चली आती है और अपने लिए उपयुक्त मार्ग बनाना सुगम हो जाता है। बरसात का पानी उधर ही दौड़ता है जिधर गड्ढे होते हैं। अतः सफलता के लिए अपेक्षित परिस्थितियाँ ढूंढ़ने की शक्ति संकल्प में है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – लोग कहते हैं कि अगर मुझे अमुक सुविधायें मिलती तो मैं ऐसा करता, मैं वैसा करता … इस प्रकार की कोरी कल्पनायें गढ़ने वाले मात्र आत्म-प्रवंचना किया करते हैं। भाग्य दूसरों के सहारे विकसित नहीं होता। आपका भार ढोने के लिए इस संसार में कोई दूसरा तैयार न होगा। हम यह यात्रा अपने पैरों से ही पूरी कर सकते हैं। दूसरे का अवलम्बन लेंगे तो हमारा जीवन कठिन हो जायेगा। हमारे भीतर जो एक महान चेतना कार्य कर रही है, उसकी शक्ति अनन्त है, उसी का आश्रय ग्रहण करें तो प्रत्यक्ष आत्म-विश्वास जाग जायेगा। संकल्प का ही दूसरा रूप है – आत्म-विश्वास। अगर वह जागृत हो जाय तो हम अपना विकास तेजी से, अपने आप पूरा कर सकेंगे। आज हम जैसे कुछ हैं, अपने जीवन को जिस स्थिति में रखे हुये हैं, केवल अपने निजी विचारों के परिणाम हैं। जैसे हमारे विचार होंगे भविष्य का निर्माण भी उसी तरह ही होगा। अतः जैसे ही साधक के भीतर शुभ-विचारों का उदय होगा, उसका उद्देश्य, अटूट साहस, श्रद्धा एवं शक्ति से ओत-प्रोत हो जाएगा, उसके जीवन मे अद्धभुत परिणाम आने लगेंगे और उसे विशेष सफलता की प्राप्ति होगी…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि संकल्प का सम्बन्ध सत्य और धर्म से होता है। उसका प्रयोग अधर्म और अत्याचार के लिये नहीं हो सकता। अधर्म पतन की ओर ले जाता है पर यह संकल्प का स्वभाव नहीं है। अधर्म से धर्म की ओर, अन्याय से न्याय की ओर, कामुकता से संयम की ओर, मृत्यु से जीवन की ओर अग्रसर होने में संकल्प की सार्थकता है। आचार्य-मुनियों ने उसे इसी रूप में लिया है। भारतीय धर्म में अनुशासन की उस उद्दात्त परम्परा का ध्यान रखते हुए ही गुरुजन “सत्यं वद, धर्म चर …” का संकल्प अपने शिष्यों से कराते रहे हैं। आध्यात्मिक तत्वों की अभिवृद्धि की तरह ही भौतिक व नैतिक आकाँक्षा को बढ़ाना भी संकल्प के अंतर्गत ही आता है। जहां अपने स्वार्थों के लिये अधर्माचरण शुरू कर दिया जाता है, वहाँ से संकल्प का लोप हो जाता है और वह कृत्य अमानुषिक, आसुरी, हीन और निकृष्ट बन जाता है। संकल्प के साथ जीवन-शुद्धता की अनिवार्यता भी जुड़ी हुई है। संकल्प की इस परम्परा में महापुरुषों की आंतरिक शुद्धता उनकी उज्ज्वल गाथाओं का स्मरण करने से मन मे शुभ-संकल्प जगने लगते हैं। इस प्रकार निकृष्टता, पाप, स्वार्थ की संकीर्णता और अत्याचार द्वारा संकल्पमयी कभी नहीं बना जा सकता…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संध्या, उपासना, दान, अनुष्ठान, यज्ञ, पुरश्चरण आदि में आचार्य यजमान को संकल्प ग्रहण कराते हैं उससे उनके उद्देश्य में कोई सटिकता भले ही न आती हो पर मानसिक चेष्टायें एक ही लक्ष्य की ओर लग जाती हैं, जिससे जीवन में अनुकूल परिणाम आने लगते हैं। मानसिक शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करना महत्वपूर्ण होता है कि उसे जिस कार्य में लगा दिया जाय उधर ही आशा सन्तोषजनक सफलता मिलने लगती है। अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय कभी मत समझिये। “साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे …”? ऐसे कमजोर विचारों का परित्याग कर दीजिये। स्मरण रखिए, शक्ति का स्रोत साधनों में नहीं, संकल्प में निहित है। यदि उन्नति करने की, आगे बढ़ने की इच्छायें तीव्र हो रही होंगी तो आप को जिन साधनों का आज अभाव दिखाई पड़ता है, तब केवल निश्चय ही दूर हुये दिखाई देंगे। संकल्प में सूर्य रश्मियों का तेज है, वह जागृत चेतना का शृंगार है, विजय का हेतु और सफलता का जनक है। अतः संकल्प से प्राप्त मन के बल द्वारा स्वल्प साधनों में भी मनुष्य अधिकतम विकास कर सकता है और आनंदमय जीवन बिता सकता है…।
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