अरुणाचल का धर्मांतरण विरोधी कानून: 40 साल पुरानी बहस और बढ़ते तनाव

धर्मांतरण विरोधी कानून की पृष्ठभूमि

अरुणाचल प्रदेश में यह कानून मुख्य रूप से ईसाई मिशनरियों द्वारा बढ़ते धर्मांतरण को रोकने के उद्देश्य से लाया गया था। इस कानून के तहत, यदि कोई व्यक्ति अपनी मूल धार्मिक आस्था (जैसे डोनी पोलो या बौद्ध धर्म) को छोड़कर किसी अन्य धर्म को अपनाना चाहता है, तो उसे सरकार को इसकी सूचना देनी होगी। जबर्दस्ती या धोखे से धर्म परिवर्तन करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है, जिसमें जेल या जुर्माना लगाया जा सकता है।

हालांकि, इस कानून को अब तक राजनीतिक और धार्मिक कारणों से प्रभावी रूप से लागू नहीं किया गया। राज्य में 1971 में ईसाई आबादी 1% से भी कम थी, लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार यह 30% से अधिक हो गई। राजनीतिक दलों ने इस बढ़ती ईसाई आबादी को महत्वपूर्ण वोट बैंक मानते हुए कानून को लागू करने से बचते रहे हैं।

ईसाई धर्म का बढ़ता प्रभाव और आदिवासी चिंताएं

1960 और 1970 के दशक में अरुणाचल प्रदेश में ईसाई मिशनरियों की सक्रियता तेजी से बढ़ी। धीरे-धीरे पूरे समुदायों ने ईसाई धर्म अपना लिया, जिससे आदिवासी समूहों में यह चिंता बढ़ी कि उनके पारंपरिक धर्म और रीति-रिवाज विलुप्त हो सकते हैं।

विशेष रूप से, डोनी पोलो धर्म को मानने वाले आदिवासी समूहों ने आरोप लगाया है कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण आर्थिक प्रलोभनों, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं के माध्यम से किए जा रहे हैं। उनका मानना है कि इससे पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान खत्म हो रही है।

हालांकि, कई ईसाई धर्म में परिवर्तित समुदायों में अभी भी आदिवासी धार्मिक परंपराओं के कुछ तत्व देखने को मिलते हैं, लेकिन इनमें ईसाई मान्यताओं का प्रभाव अधिक स्पष्ट होता जा रहा है। यह धार्मिक सिंक्रेटिज़्म (धार्मिक मिश्रण) भी विवाद का कारण बना हुआ है, क्योंकि पारंपरिक समुदाय इसे अपनी संस्कृति के लिए खतरा मान रहे हैं।

राजनीति और धर्मांतरण कानून की जटिलता

इस कानून को लागू करने को लेकर राजनीतिक माहौल बेहद संवेदनशील बना हुआ है। मुख्यमंत्री पेमा खांडू, जो भारतीय जनता पार्टी (BJP) से हैं, एक ओर आदिवासी समूहों के दबाव में हैं, तो दूसरी ओर ईसाई समुदाय को नाराज करने का खतरा भी उनके सामने है।

2018 में खांडू सरकार ने कानून लागू करने की बात कही थी, लेकिन ईसाई समुदाय और स्थानीय नेताओं के भारी विरोध के कारण इसे टाल दिया गया। चुनावी राजनीति के चलते सरकार इस मुद्दे पर कोई कठोर निर्णय लेने से बच रही है।

धर्मांतरण और धर्मनिरपेक्षता पर बहस

2025 में धर्मांतरण विरोधी कानून को लागू करने की मांग एक बार फिर उठी है। डोनी पोलो समुदाय का कहना है कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को खत्म कर रहे हैं, जबकि ईसाई संगठनों का कहना है कि धर्मांतरण स्वैच्छिक है और इसे रोकने का प्रयास संवैधानिक धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।

ईसाई समुदाय ने यह भी आशंका जताई है कि यदि इस कानून को लागू किया जाता है, तो इसका उपयोग उनके खिलाफ भेदभाव और उत्पीड़न के लिए किया जा सकता है। अरुणाचल क्रिश्चियन फोरम (ACF) ने इस कानून को खत्म करने की मांग की है और चेतावनी दी है कि इससे समाज में धार्मिक विभाजन और हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता देता है। इस संदर्भ में यह विवाद भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और स्वदेशी समुदायों की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती पेश करता है।

न्यायपालिका और हालिया घटनाक्रम

2024 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अरुणाचल सरकार को आदेश दिया कि वह छह महीने के भीतर इस कानून को लागू करने के लिए आवश्यक नियम बनाए। इससे सरकार पर दबाव बढ़ गया है।

आदिवासी संगठनों, विशेष रूप से इंडिजिनस फेथ एंड कल्चरल सोसाइटी ऑफ अरुणाचल प्रदेश (IFCSAP) ने इस कानून को लागू करने की मांग को लेकर प्रदर्शन तेज कर दिए हैं। दूसरी ओर, ईसाई समूहों ने विरोध प्रदर्शन और भूख हड़ताल शुरू कर दी है।

राष्ट्रीय राजनीति और RSS की भूमिका

इस विवाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रवेश ने इसे राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा बना दिया है। RSS आदिवासी समूहों का समर्थन कर रहा है और धर्मांतरण पर सख्ती की मांग कर रहा है। आलोचकों का कहना है कि RSS का हस्तक्षेप इस मुद्दे को और ज्यादा राजनीतिक रंग दे रहा है और इससे धार्मिक ध्रुवीकरण की आशंका बढ़ गई है।

आगे की राह: संतुलन की आवश्यकता

अरुणाचल प्रदेश में धर्मांतरण कानून का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है। राज्य सरकार को इस पर निर्णय लेने के लिए भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा है। संस्कृति संरक्षण और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन कायम करना इस विवाद को हल करने की कुंजी होगी।

अब समय आ गया है कि राजनीतिक नेताओं, आदिवासी समूहों और धार्मिक संगठनों के बीच संवाद स्थापित हो, ताकि इस संवेदनशील मुद्दे का हल निकाला जा सके। यह विवाद केवल अरुणाचल प्रदेश तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे पूरे देश में धार्मिक बहुलता, धर्मनिरपेक्षता और स्वदेशी समुदायों के अधिकारों को लेकर नई बहस छिड़ सकती है।

फिलहाल, यह मुद्दा एक खुली बहस बना हुआ है, लेकिन इसका समाधान भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान को लेकर भविष्य की नीतियों को प्रभावित कर सकता है।

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