पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
*पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – प्रकाश हमारी स्वाभाविक माँग है; दीपावली आत्मा के प्रकाश का त्योहार है। दीपावली के शुभ अवसर पर हमारे तिमिराच्छादित हृदय में ज्ञान, यश, श्री, सुख एवं समृद्धि की अनेक दीपमालिकाएँ प्रज्ज्वलित होकर हमारे अंतःकरण को आलोकित करते रहें। आप सभी के लिए दीपावली शुभ हो …। प्रकाश-उजास का पर्व दिवाली सर्वथा कल्याणकारी सिद्ध हो… ! दीपावली का पर्व ज्ञान, विवेक एवं मित्रता की लौ प्रज्वलित करने का पर्व है। दीपावली का पर्व ज्योति का पर्व है। दीपावली का पर्व पुरुषार्थ का पर्व है। यह आत्म साक्षात्कार का पर्व है। यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। यह हमारे आभामंडल को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है, लेकिन बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक देदीप्यमान एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदास जी ने कहा था – ‘बाहर से तो कुछ न दीसे, भीतर जल रही जोत’। जो महापुरुष उस भीतरी ज्योति तक पहुँच गए, वे स्वयं ज्योतिर्मय बन गए। जो अपने भीतरी आलोक से आलोकित हो गए, वे सबके लिए आलोकमय बन गए। जिन्होंने अपनी भीतरी शक्तियों के स्रोत को जगाया, वे अनंत शक्तियों के स्रोत बन गए और जिन्होंने अपने भीतर की दीपावली को मनाया, लोगों ने उनके उपलक्ष में दीवाली का पर्व मनाना प्रारंभ कर दिया। दीपावली के इस पर्व का प्रत्येक भारतीय उल्लास एवं उमंग से स्वागत करता है। यह पर्व हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की गौरव गाथा है। प्रत्येक भारतीय की रग-रग में यह पर्व रच-बस गया हैं….।
*पूज्य “आचार्यश्री जी ने कहा – दीपावली पर्व की सार्थकता के लिए जरूरी है, दीये बाहर ही नहीं, दीये भीतर में भी जलने चाहिए; क्योंकि दीया कहीं भी जले उजाला देता है। दीये का संदेश है – हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें, क्योंकि पलायन के कारण मनुष्य के दामन पर बुजदिली का धब्बा लगता है, जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएँ जीवन की सार्थक दिशाएँ खोज लेती हैं। असल में दीया उन लोगों के लिए भी चुनौती है जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, दिशाहीन और चरित्रहीन बनकर सफलता की ऊँचाइयों के सपने देखते हैं। जबकि दीया दुर्बलताओं को मिटाकर नई जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प है। मोह का अंधकार भगाने के लिए धर्म का दीप जलाना होगा। जहाँ धर्म का सूर्य उदित हो गया, वहाँ अंधकार टिक नहीं सकता। एक बार अंधकार ने ब्रह्माजी से शिकायत की कि सूरज मेरा पीछा करता है। वह मुझे मिटा देना चाहता है। ब्रह्माजी ने इस बारे में सूरज को बोला तो सूरज ने कहा – मैं अंधकार को जानता तक नहीं, मिटाने की बात तो दूर, आप पहले उसे मेरे सामने उपस्थित करें। मैं उसकी शक्ल-सूरत देखना चाहता हूँ। ब्रह्माजी ने उसे सूरज के सामने आने के लिए कहा तो अंधकार बोला – मैं उसके पास कैसे आ सकता हूँ? अगर आ गया तो मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – यह बात सच है कि मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी माँगा। “तमसो मा ज्योतिगर्मय…” भक्त की अंतर भावना अथवा प्रार्थना का यह आर्तस्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल, इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा कि वह कौन-सा दीप है जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। अंधकार से घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करें, सार्थक नहीं हुआ करती। आचरण से पहले ज्ञान को, चारित्र पालन से पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना है। ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया – “नाणं पयासयरं…” अर्थात्, ज्ञान प्रकाशकर है। हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतरी जगत और बाहरी जगत दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। भगवान महावीर ने दीपावली की रात जो संदेश दिया यह शिक्षा मानव मात्र के आंतरिक जगत को आलोकित करने वाली है। तथागत बुद्ध की अमृत वाणी “अप्पदीवो भव…” अर्थात्, आत्मा के लिए दीपक बन, वह भी इसी भावना को पुष्ट कर रही है। इतिहासकार कहते हैं कि जिस दिन ज्ञान की ज्योति लेकर नचिकेता यमलोक से मृत्युलोक में अवतरित हुए वह दिन भी दीपावली का ही दिन था। यद्यपि लोक मानस में दीपावली एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना प्रसंगों से इस पर्व की महत्ता जुड़ी है, वे अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष थे। इस दृष्टि से दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अनूठा पर्व है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हालाँकि दीपावली को लौकिक पर्व के रूप में नहीं अलौकिक पर्व के रूप में देखें। केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं, बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने – दीपावली। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह और मूर्च्छा के अंधकार को दूर कर सकते हैं। दीपावली के मौके पर सभी आमतौर से अपने घरों की साफ-सफाई, साज-सज्जा और उसे संवारने-निखारने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार अगर भीतर चेतना के आँगन पर जमे कर्म के कचरे को बुहारकर साफ किया जाए, उसे संयम से सजाने-संवारने का प्रयास किया जाए और उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित कर दिया जाए तो मनुष्य शाश्वत सुख, शांति एवं आनंद को प्राप्त हो सकता है। हमें यदि धर्म के भीतर के प्रकाश को समझना है और वास्तव में धर्म करना है तो सबसे पहले इंद्रियों पर संयम रखना सीखना होगा। आँखें बंद, कान बंद और मुँह बंद-ये सब बंद हो जाएँगे तो फिर संसार के नाटक, टीवी सीरियल, सिनेमा देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। नाटक देखने की जरूरत उन्हें पड़ती है, जो अंतर्दर्शन में नहीं जाते। यदि आप केवल आधा घंटा के लिए सारी इंद्रियों को विश्राम देकर बिलकुल स्थिर और एकाग्र होकर अपने भीतर झाँकना शुरू कर दें और इसका नियमित अभ्यास करें तो एक दिन आपको कोई ऐसी झलक मिल जाएगी कि आप रोमांचित हो जाएँगे। आप देखेंगे-भीतर का जगत कितना विशाल है, कितना आनंदमय और प्रकाशमय है। वहाँ कोई अंधकार नहीं है, कोई समस्या नहीं है। जिस दिन भी आपको अपने भीतर के दिव्य प्रकाश की अनुभूति होगी वास्तव में जीवन की सबसे श्रेष्ठ दीपावली वही होगी…।
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