न्यूज़ डेस्क : अफगानिस्तान में 20 साल लंबे चले अमेरिकी मिशन के खत्म होने के ऐलान के साथ ही कई देशों ने काबुल स्थित अपने दूतावासों से राजनयिकों को वापस बुलाना शुरू कर दिया। जहां कई अधिकारियों ने अफगानिस्तान में नई सत्ता से जल्द दोबारा रिश्ते बहाल होने पर शक जताया है, वहीं कुछ और देशों ने तालिबानी शासन की तारीफ के साथ उसके साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करने का ऐलान भी किया है। इनमें सबसे पहला नाम पाकिस्तान और चीन का है। जहां चीन के विदेश मंत्रालय ने तालिबान के साथ आधिकारिक रिश्ते रखने की बात कही है, वहीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान पहले ही तालिबान के राज को अफगान नागरिकों के बेड़ियों से मुक्त होने से जोड़ चुके हैं।
दूसरी तरफ रूस और तुर्की की तरफ से अभी तालिबान से संबंध स्थापित करने पर कोई बयान नहीं दिया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इन दोनों देशों की क्रमशः चीन और पाकिस्तान से करीबी की वजह से तालिबान को यहां भी मान्यता मिल जाएगी। तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब अर्दोआन ने तो यहां तक कहा है कि उनका देश आने वाले समय में पाकिस्तान के साथ मिलकर अफगानिस्तान में स्थायित्व के लिए काम करेगा, ताकि तालिबान के डर से देश छोड़कर भाग रहे नागरिक सरकार का हिस्सा बन सकें।
अमेरिका के जाने से क्या है चीन और रूस का फायदा?
चीन और रूस दोनों ही देश मध्य एशिया में लंबे समय से आर्थिक हित साधने में जुटे हैं। रूस ने बीते कुछ सालों में अपने अपने यूरेशियन आर्थिक व्यापार ब्लॉक को मजबूत करने के लिए इस क्षेत्र के देशों में अपना प्रभाव बढ़ाया है, वहीं चीन अपनी बेल्ट एंड रोड योजना के तहत पाकिस्तान और उसके बाद अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों को कब्जे में लेने की तैयारी में है। बीते 20 सालों में अमेरिकी सेना की मौजूदगी और तालिबान से उसकी जंग की वजह से दोनों ही देश अब तक मध्य एशिया के इस देश में प्रभाव बनाने में नाकाम रहे हैं।
चीन की नजर अफगानिस्तान की समृद्ध खनिज संपदा पर है, जिसकी कीमत 2017 में अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे में 3 अरब डॉलर से ज्यादा आंकी गई थी। चीन के नई अफगान सरकार से संबंध स्थापित करने वाले बयान के बाद तालिबानी प्रवक्ता सुहैल ने कहा कि अमेरिकी सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान में सबसे बड़े निवेशक चीन के साथ बातचीत करना जरूरी था। हम कई बार चीन गए हैं और उनके साथ हमारे अच्छे संबंध हैं। चीन एक मित्र देश है जिसका हम अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और विकास के लिए स्वागत करते हैं।
अफगानिस्तान में तालिबानी राज के पाकिस्तान को फायदे?
दूसरी तरफ चीन और रूस के उलट पाकिस्तान तालिबान के जरिए ही अफगानिस्तान में अपना प्रभाव कायम करने में जुटा है। दरअसल, 2001 में अमेरिकी सेनाओं के अफगानिस्तान में मिशन शुरू करने के बाद से ही तालिबान के अधिकतर वरिष्ठ नेताओं का पनाहगाह पाकिस्तान ही रहा था। ऐसे में दुनियाभर के जानकारों का मानना है कि अफगानिस्तान में तालिबान के पीछे पाकिस्तान के हाथ होने के दो कारण हो सकते हैं। पहला- यह कि अफगानिस्तान में तालिबान के शासन वाली सरकार के बनने पर उसे आतंकियों से अपने कनेक्शन का जबरदस्त फायदा मिलेगा और इससे अफगानिस्तान में उसका प्रभाव भी बढ़ेगा। दूसरा- इसके जरिए पाकिस्तान को अफगानिस्तान से होकर जाने वाले मध्य एशियाई मार्गों पर नियंत्रण का मौका भी मिलेगा, जिससे भारत के लिए कूटनीतिक मामलों में मुश्किल पैदा हो सकती है।
उधर विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि 2001 के बाद से अफगानिस्तान के विकास कार्यों में भारत का अहम योगदान रहा है, जिससे देश में राजनयिक स्तर पर भी भारत का प्रभाव बढ़ा है। ऐसे में पाकिस्तान का आरोप था कि भारत अफगानिस्तान के जरिए उसे घेरने की कोशिश में भी जुटा है। 2004 के बाद से अफगानिस्तान की गनी सरकार हो या करजई सरकार, दोनों ही पाकिस्तान पर आतंकियों को सुरक्षित पनाह देने को लेकर निशाना साधते रहे थे। काबुल में भारत के पूर्व राजदूत गौतम मुखोपाध्याय ने भी अपने लेख में साफ कहा कि अफगानिस्तान में यह एक अफगान संगठन के चेहरे के साथ पाकिस्तानी घुसपैठ है। इतना ही नहीं अफगानिस्तान की पिछली सरकार में उपराष्ट्रपति रहे अमरुल्ला सालेह और बाकी पदाधिकारियों ने कुछ समय पहले ही आरोप लगाया था कि पाकिस्तानी सेना के विशेष बल और आईएसआई तालिबान को निर्देश देने में जुटे हैं।
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