न्यूज़ डेस्क : उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहा है, प्रदेश में राजनीतिक हलचल तेज होने लगी है। एक तरफ भाजपा ओमप्रकाश राजभर जैसे अपने पुराने सहयोगियों की नाराजगी दूर कर एक बार फिर उन्हें साथ लाने में जुट गई है तो वहीं विपक्ष भी अपनी धार को तेज करने के लिए लगातार सक्रिय है। उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन बनाकर गैर-भाजपाई वोटों को बंटने से रोकने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं।
पश्चिम बंगाल के प्रयोग से विपक्ष उत्साहित
माना जाता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 के दौरान भाजपा अपने सर्वश्रेष्ठ लोकप्रियता पर थी। उस प्रचंड लोकप्रियता में भी भाजपा को केवल 39.67 फीसदी ही मत प्राप्त हुए थे। यानी उस दौरान भी 60 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं ने गैर-भाजपाई विकल्प को ही प्राथमिकता दी थी। विपक्ष के रणनीतिकारों का मानना है कि अगर इन वोटरों को एक साथ लाने में सफलता पाई जा सके तो भाजपा को रोकना संभव हो सकता है।
कोरोना महामारी के दौरान राज्य सरकार का कुप्रबंधन, युवाओं में लगातार बढ़ रही बेरोजगारी, किसानों-शिक्षकों की नाराजगी और अन्य कारणों से माना जा रहा है कि इस बार भाजपा का ग्राफ नीचे ही जाएगा। ऐसे में विपक्षी दलों की रणनीति है कि अगर वोटों को बिखरने से रोका जा सके तो भाजपा को हराया जा सकता है।
अखिलेश यादव के बयान को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है। उन्होंने बसपा और कांग्रेस से कहा कि उन्हें यह तय करना चाहिए कि उन्हें सपा से लड़ना है या भाजपा से। राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि यह अखिलेश यादव का संकेत था कि विपक्षी दलों को साथ आकर गैर-भाजपाई वोटरों को एक साथ लाने की कोशिश की जानी चाहिए।
2017 में फेल हो गया था ये फॉर्मूला
हालांकि, इसके पहले विपक्ष का यह फॉर्मूला असफल साबित हुआ है। 2017 में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ आने के बाद भी दोनों दलों को इसका कोई लाभ नहीं हुआ और भाजपा ने इस चुनाव को भारी बहुमत से जीता। इसके बाद 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा के गठबंधन को एतिहासिक बताया जा रहा था, लेकिन इसके बाद भी भाजपा ने रिकॉर्ड 62 सीटें जीतीं और सपा पांच तो बसपा दस सीटें ही जीत पाई।
इतना ही नहीं, सपा और बसपा दोनों ही दल गठबंधन में होने के बाद भी लगभग उतना ही वोट प्राप्त कर सके जितना कि वे अकेले दम पर प्राप्त करते थे। दोनों ही दलों के पास समाज के कुछ वर्गों पर सीधी पकड़ है और उनका यह वोट बैंक हमेशा उनके साथ रहता है। माना जा रहा था कि सपा-बसपा के बीच गठबंधन के बाद भी निचले स्तर पर दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच इस गठबंधन को स्वीकार नहीं किया गया जिसके कारण यह गठबंधन सफल नहीं हो पाया।
सपा नहीं करेगी गठबंधन
समाजवादी पार्टी के एक शीर्ष नेता ने कहा कि 2019 के सपा-बसपा के गठबंधन से बड़ा कोई दूसरा गठबंधन संभव नहीं है। लेकिन अनुभव बताता है कि नेताओं और दलों के इस गठबंधन को जनता ने स्वीकार नहीं किया है। ऐसे में उनका गठबंधन किसी अन्य दल से नहीं होगा। इसके पहले ही पार्टी आरएलडी से सहयोग की बात कह चुकी है और उसी के साथ चुनाव में उतरेगी।
कांग्रेस ने नाकारा
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने अमर उजाला से कहा कि विपक्ष के साथ समग्र गठबंधन की कोई संभावना नहीं है। अखिलेश यादव ने विपक्षी दलों पर ही हमला बोला था, इसलिए इस बयान का कोई अर्थ नहीं है। उन्होंने कहा कि पूरे पांच साल के दौरान कांग्रेस ने अकेले दम पर सड़कों पर भाजपा का विरोध किया है। मजदूरों, छात्रों और महिलाओं के लिए हमेशा कांग्रेस ने ही लड़ाई लड़ी। वह अकेले दम पर ही जनता के बीच जाएगी।
प्रियंका गांधी ने सहयोगी दलों से गठबंधन का संकेत दिया था, इस पर कांग्रेस नेता ने कहा कि प्रियंका गांधी ने छोटे-छोटे दलों को साथ लेने की बात कही थी। इसमें अगर कोई दल आता है तो इसका स्वागत किया जाएगा, लेकिन बड़े स्तर पर किसी गठबंधन की कोई संभावना नहीं है।
भाजपा ने कहा- विफल प्रयोग को दोहराने के लिए स्वतंत्र है विपक्ष
भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ला ने कहा कि विपक्ष ने इसके पहले ही गठबंधन की सारी संभावनाएं तलाश कर उसे उपयोग करके देख लिया है। ऐसे में अब उनके पास कुछ नया नहीं है, लेकिन इसके बाद भी अगर विपक्ष अपनी असफलता का प्रयोग दोहराना चाहता है तो वह इसके लिए स्वतंत्र है। भाजपा नेता ने कहा कि अगर विपक्ष इस तरह का कोई प्रयोग दोहराता है तो भी वह असफल ही रहेगा क्योंकि यह जनता के हितों के लिए नहीं, विपक्ष के कुछ नेताओं के स्वार्थ का गठबंधन होगा।
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