पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भगवन्नाम सर्वोत्तम औषधि है। समर्पित भाव, निष्कामता और गुरु-परम्परा का अनुसरण इस औषधि के साथ सेवनीय साधन हैं…! भगवान के लिए वस्तु का कोई महत्व नहीं है, वस्तु को समर्पित करने वाले की भावना का महत्व है। सम्पूर्ण जगत भगवान के अधीन है और भगवान मंत्र के अधीन हैं। सतयुग में भगवान विष्णु के ध्यान से, त्रेतायुग में यज्ञ से और द्वापर में भगवान की पूजा से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान के नाम-संकीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। बार-बार भगवन्नाम-जप करने से एक प्रकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद और भगवदीय अमृत प्रकट होने लगता है। भगवन्नाम अनंत माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान है। नाम और नामी में अभिन्नता होती है। नाम-जप करने से जापक में नामी के स्वभाव का प्रत्यारोपण होने लगता है और जापक के दुर्गुण, दोष, दुराचार मिटकर दैवीय संपत्ति के गुणों की स्थापना और नामी के लिए उत्कट प्रेम-लालसा का विकास होता है। भगवन्नाम, इष्टदेव के नाम व गुरुनाम के जप और कीर्तन से अनुपम पुण्य प्राप्त होता है। संत तुकारामजी कहते हैं – “नाम लेने से कण्ठ और आर्द्र शीतल होता है। इन्द्रियाँ अपना व्यापार भूल जाती हैं। भगवन्नाम ऐसा है कि इससे क्षणमात्र में त्रिविध ताप नष्ट हो जाते हैं। श्रीहरिनाम -संकीर्तन में प्रेम-ही-प्रेम भरा है। इससे दुष्ट बुद्धि नष्ट हो जाती हैं और श्रीहरि-कीर्तन में समाधि लग जाती है..।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परम पुरुष भगवान श्रीनारायण के नामोच्चार करने मात्र से ही मनुष्य कलिकाल से तर जाता है। सर्वशास्त्रों का मन्थन करने के बाद अथवा बार-बार विचार करने के बाद, ऋषि-मुनियों को जो एक सत्य लगा, वह है – भगवन्नाम। भगवन्नाम-जप की महिमा अनंत है। भगवान के नाम का जप सभी विकारों को मिटाकर दया, क्षमा, निष्कामता आदि दैवीय गुणों को प्रकट करता है। भगवन्नाम जपने से पुराने संस्कार हटते जाते हैं, जापक में सौम्यता आती जाती है और उसका आत्मिक बल बढ़ता जाता है। भगवन्नाम जपने से चित्त पावन होने लगता है। रक्त के कण पवित्र होने लगते हैं। दुःख, चिंता, भय, शोक, रोग आदि निवृत होने लगते हैं। सुख-समृद्धि और सफलता की प्राप्ति में मदद मिलने लगती है। जैसे, ध्वनि-तरंगें दूर-दूर जाती हैं, ऐसे ही नाम-जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहरे उतर जाती हैं तथा पिछले कई जन्मों के पाप को मिटा देती हैं। इससे हमारे अंदर शक्ति-सामर्थ्य प्रकट होने लगता है और निर्मल बुद्धि का विकास होने लगता है। मंत्र जापक को व्यक्तिगत जीवन में सफलता एवं सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है। भगवन्नाम जप मानव के भीतर की सोयी हुई चेतना को जगाकर उसकी महानता को प्रकट कर देता है। यहाँ तक कि जप से जीवात्मा परब्रह्म-परमात्मपद तक पहुँचने की क्षमता भी विकसित कर लेता है….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परम पुरुष की प्राप्ति हेतु साधना उपासना के क्षेत्र में समर्पण का महत्व असाधारण है। समर्पण की पूर्णता से भगवत चेतना का अवतरण मनुष्य के परिष्कृत अन्तराल में बन पड़ता है। समर्पण का यथार्थ अभिप्राय अपनी सत्ता के विलय-विसर्जन से है। आग में पड़ने पर बबूल, आम, चन्दन सभी एक सा स्वरूप प्राप्त करते हैं अर्थात् अग्निमय हो जाते हैं। इसमें ये सब अपने गुणों को छोड़कर अग्नि के गुण प्राप्त करते हैं। भक्त को समर्पण के लिए भगवान जैसा ही बनना होता हे। अपने व्यक्तित्व को उन्हीं गुणों से अलंकृत करना होता है जो परमात्मा में है। समर्पण वह प्रखर पराक्रम है जिसमें अपनी क्षुद्रता, संकीर्णता व स्वार्थपरता को पूरी तरह से त्याग कर परम सत्ता की दिव्यता एवं महानता से एक हो जाना पड़ता है। समर्पण का अर्थ निष्क्रियता नहीं है, अपितु वासना और अहंकार का त्याग कर, फलासक्ति से रहित हो, अहंभाव से सर्वथा शून्य होकर भगवान के हाथ का यंत्र बन कर, भगवानमय होकर भगवान के लिए कार्य करना है। समर्पित व्यक्ति की कसौटी यही है कि वह अपनी स्वार्थ की संकीर्णता से ऊपर उठकर सद्-उद्देश्यों के लिए अपने शरीर और मन को लगाए। अतः उसकी क्रियाशीलता, विचारणा, और निर्मल अन्तःकरण की उदारता व्यक्तिगत स्वार्थ में नहीं, परमार्थ में नियोजित होगी…।
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