पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – आत्मवत् सर्वभूतेषु का भाव चिरकाल से ही भारतीय संस्कृति-जीवन मूल्यों का अभिन्न अंग रहा है। इसलिए हमारी प्रार्थनाओं में वैश्विक शान्ति के साथ-साथ सम्पूर्ण धरा, अंतरिक्ष एवं ब्रह्याण्ड के प्रत्येक अवयवों में शान्ति और समन्वय के स्वर समाहित हैं ..! परमार्थ और सबका कल्याण भारतीय संस्कृति के मूल में है। हमारी भारतीय संस्कृति में लोक-कल्याण और लोक हित की भावना सर्वोपरि है। दूसरों के कल्याण और आनंद में स्वयं के सुख की अनुभूति होती है। सबका हित हमारी संस्कृति का मूल आधार है। वेद भी कहते हैं “सब सुखी हों, सब निरोगी हो और किसी को भी दु:ख न हो”। जब तक समाज में यह पवित्र भावना नहीं जागती तब तक सामाजिक समरसता का निर्माण नहीं होता। भारतीय संस्कृति में समन्वय का तत्व आदिकाल से विद्यमान है। भारतीय संस्कृति सबको साथ लेकर चलती है। सबकी चिंता और सबके कल्याण की कामना करती है। हम जो शांति पाठ करते हैं, उसमें प्रकृति के सभी अवयवों की शांति की प्रार्थना भी सम्मिलित है। इस प्रकार हमारी यह संस्कृति ही हमें सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाती है …।
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