पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – स्वभाव में रहें। अपरिमित आनन्द, अपार शान्ति, असीम सुख और अद्भुत रस स्वयं में निहित है। अतः स्वाभाविक जीवन जीने का अभ्यास हो…! जीवन में सरलता से ही पुण्यकर्म जागृत होते हैं। व्यवहार में निर्मलता लाने से कई कार्य सहजता से बन जाते हैं। रावण का वह प्रभाव श्रीराम के स्वभाव से हार गया और श्रीराम का जो स्वभाव है, उसके पीछे गुरु सत्ता ही है। प्रभु श्रीराम के इस लोक कल्याणकारी स्वभाव में वशिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्त, जमदाग्नि जैसे अनेक ऋषियों का योगदान है। इसलिए जहां ज्ञान और विचार है वहीं शान्ति और समाधान है। यदि आप अपना आचार-विचार बदलना चाहते हैं तो सबसे सरल काम है – अच्छे लोगों की संगत में उठना-बैठना शुरू कर दीजिए। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने गुरु शब्द की महनीयता का प्रतिपादन किया उन्होंने कहा कि गुरु अर्थात् विचार सत्ता, ज्ञान सत्ता और प्रकाश सत्ता। जिसके पास विचारों का प्रकाश है, उसी का जीवन सार्थक है। ज्ञान हमें हमारी अनन्तता का बोध कराने वाला तत्व है। हमारे भीतर शुभता, तेज और अतुल्य सामर्थ्य विद्यमान है। जीवन में गुरु और ग्रंथ आए, संत और सत्संग के आने का फलादेश यह है कि हम विनम्र बनते हैं। इसलिए गुरु यानी मर्यादा। और, यदि आपके पास मर्यादा है या आप किसी के शील, संयम, मर्यादा का हनन नहीं कर रहे हैं तो ही आप आध्यात्मिक हैं। आध्यत्मिक होने से आपका स्वाभाव दैवीय बन जाएगा। सुखाशय में भागने से राग द्वेष हो जाता है। साधना में कभी भी गतिरोध न करें। निरंतरता बनी रहे, सरलता आपका स्वभाव बन जाए, अतः महापुरुषों की सान्निध्य में रहें…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जीवनशैली में संवाद की बड़ी महत्ता है। संवाद ही आपके व्यक्तित्व की पहचान है। मन हमेशा भूत की बातों या भविष्य के कल्पनाओं में भटक जाता है। मन को भटकने से बचाने के लिए वर्तमान में जीवन जीने की कला सीखनी होगी। जीवन में प्रबंधन लाएं एवं सफलता में सार्थकता। जीवन प्रबंधन तभी सफल है, जब उसमें सार्थकता हो तभी व्यक्ति के स्वभाव में मुखरता होती है। आप अपने परिवार का विश्वास जीते बिना समाज का विश्वास नहीं जीत सकते। आज का युग वाचाल का युग है। हर किसी को भड़ास निकालने की, पोस्ट करने की हड़बड़ी है। इसलिए ऐसे शब्द न बोलें, जो किसी को आहत करें। जब भी बोलें, वक्त पर बोलें। मुदत्तों सोचिये, मुक्तसर बोलिये। समय प्रबंधन ही जीवन प्रबंधन है। जीवन में सफलता के लिए सूर्योदय के पहले अपनी आंखें खोलें। आपका पूरा दिन उत्साह-उल्लास और सकारात्मकता से भरपूर हो जाएगा। गीता का अध्ययन करें, गीता में अनेक प्रकार के समाधान और उपाय हैं, जो यह संदेश देती है कि आदमी जब शिथिल हो जाए, गिर पड़े तो गुरु ही उसे ऊपर उठा सकता है। पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। परन्तु संत, भगवान, गुरु के संपर्क में आने वाला हर शिष्य स्वयं उनके जैसा बना जाता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – इस युग में एक प्रवृत्ति और आई है कि ‘मैं अच्छा दिखूं, भले ही मैं अच्छा न होऊं।’ तो ऐसे कितने ही तरीके-साधन आ गए जो आपकी श्रेष्ठता को सिद्ध कर रहे हैं। हम आज जिस तरह का समाज देख रहें हैं उसमें व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हुआ है। पहले व्यक्ति को संकोच होता था, जब कोई उसकी श्रेष्ठता, पूज्यता, शील, पावित्र्य, विद्या अथवा उसके किसी बड़े कार्य या उपलब्धि को उजागर करता था। वह बड़ा सकुचाकर कहता था कि ‘नहीं, यह तो माता-पिता का आशीर्वाद है, गुरुजनों का अकारण अनुग्रह है, मुझमें ऐसी योग्यता कहां …।” लेकिन, वर्तमान समय ऐसा है कि व्यक्ति को अच्छा लगता है जब कोई उसकी प्रशंसा करता है। वह स्वयं भी सोचता है कि ‘मैं जरा बता दूं कि मैं भी कुछ हूं।’ आज तात्कालिक लाभ की प्रवृत्ति प्रचण्ड है। लाभ में भी यश, सम्मान और यशोगान। आज अकारण ही किसी का यशोगान हो तो वह सकुचाता नहीं है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आनंद का समुद्र और सुख का भंडार हैं – श्रीराम। जिसका अंतःकरण निर्दोष हो, भगवान भी उसी के पास जाते हैं। हम उच्च पद, सत्ता, वैभव, ऐश्वर्य से संपन्न व्यक्ति से बिना पात्रता, योग्यता और सामर्थ्य के बहुत सी अपेक्षा करने लगते हैं। जिनके पास हमसे कम साधन है, उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं, यह हमारी अज्ञानता है। जीवन में ज्ञान के साथ चारित्र का होना भी अति आवश्यक है। ज्ञान के बिना चारित्र अंधा होता है और चारित्र के बिना ज्ञान लंगड़ा है। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। अतः ज्ञान और चरित्र के सहारे आत्मा इस संसार रूपी भवसागर से पार हो जाती है…।
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