शब्द हर मनुष्य के जीवन में कितना महत्वपूर्ण है यह वह नहीं जानता: स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – प्रत्येक प्राणी के हित में प्रकृति का परिचारिका रूप वस्तुतः ईश्वर की करुणा-अनुग्रह का ही बोध कराता है। प्रतिपल सौन्दर्य-माधुर्य से युक्त प्रकृति सर्वथा निर्दोष एवं ईश्वरीय विधान की ही साकारता है। अतः प्रकृति के साथ एकात्मता और आदरभाव रखें ! जैसे ही हमारे भीतर प्रकृति के प्रति आदर का भाव जगता है। प्रकृति के कण-कण में हमें उस सर्वव्यापक ईश्वर के दर्शन होते हैं और मन पवित्र, शांत तथा आनंदित हो जाता है। भगवान के विचार महान शांति, संतोष और सद्भाव लाते हैं। प्रकृति को स्वभाव भी कहते हैं। पर, यह शब्द हर मनुष्य के जीवन में कितना महत्वपूर्ण है यह वह नहीं जानता। शाब्दिक अर्थ जानना अलग बात होती है, उसका प्रयोग करना अलग। परन्तु, उस शब्द को समझना अद्भुत होता है, आनंदित करता है।
सुख से उपर की स्थिति में ले जाता है। प्रेम मनुष्य की प्रकृति है। मनुष्य को प्रेम चाहिए ही चाहिए। सम्पूर्ण प्रकृति बादल, नदियाँ, पहाड़ या जंगल सभी सर्वव्यापी प्रेम के समान उदाहरण का पालन करते हैं। पेड़ सबके लिए समान हितकारी बनकर स्वस्थ वातावरण के लिए छाया, फल व फूल और भूखों के लिए भोजन प्रदान करते हैं। वे बदले में किसी चीज़ की मांग नहीं करते। धरती बीजों का पौधों में रूपांतरण करती हैं, इसकी परवाह किए बिना कि वे बीज किसने बोए हैं या उनसे किसे लाभ मिलने वाला है? यह बिल्कुल माँ के प्यार की तरह है, जो सबके लिए समान और क्षमा करने वाला है, तब भी जब उनमें से कुछ उनकी चोट का कारण रहे हों। यदि कोई प्रकृति से सबक ले, तो विश्व एक अधिक बेहतर स्थान बन जाएगा, क्योंकि ईर्ष्या, घृणा और स्वार्थ जैसी विध्वंस ताकतों का सफाया हो जाएगा। आपसी प्यार और विश्वास का एक नया युग पृथ्वी पर एक नई सुबह लाएगा।
जाति, रंग, वर्ग, लिंग और उम्र की भिन्नताएँ दूर हो जाएँगीं। आधुनिक युग में अधिकतम समस्याएँ इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि हमने प्रकृति से सीखना और उसकी देखभाल करना बंद कर दिया है। उस सुखद अनुभव की कल्पना करें, जो भोर होने पर पक्षियों की चहचहाहट को सुनकर, बहती हुए नदियों को देखकर, पहाड़ों की बर्फ से ढकी चोटी को देखकर, वन की सैर पर जाते समय शानदार ढंग से खड़े लंबे पेड़ों को देखकर, पूर्ण चंद्रमा की रात को चांद को देखकर या अमावस्या की रात सितारों से जड़ित आकाश को देखकर मिलता है। ऐसे अनुभवों द्वारा उत्पन्न दिव्य भावनाएँ किसी को जीवन के अर्थ पर, विश्व में हमारे स्थान पर विचार करने के लिए मजबूर करती हैं और शाश्वत आनंद का अनुभव करने के लिए श्रेष्ठ या पवित्र बनने के लिए प्रेरित करती हैं। इसलिए प्रकृति के साथ जीएं, प्रकृति से प्रेम करें, प्रकृति की रक्षा करें, प्रकृति से सीखें और जल्द ही आप सभी संकीर्ण प्रवृत्तियों से ऊपर उठ जाएंगे और सर्वव्यापी प्रेम के अनुयायी बन जाएंगे …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – विश्व-बन्धुत्व की और समन्वय की इस संस्कृति ने अपनी साधना चलाई सृष्टि के चरणों में नतमस्तक होकर। सृष्टि को भोगवस्तु नहीं, गुरु मानकर, उसे प्रणाम करके भारतीय मनुष्य ने अपना आध्यात्मिक विकास करने का सोचा। वन में विचरण करते समय जीव-जन्तु, विविध प्राणी, पशु-पक्षी इन सबका परस्परावलम्बन और प्रेम सम्बन्ध देखा। विशेष रूप से वृक्षों की परोपकारी जीवनशैली ऋषि-मुनियों को आत्मौपम्य के जीवन-दर्शन तक ले गई। धरती और आकाश के त्रिविध आयामों में वृक्षों की स्थिति और गति रहती है। प्रकृति की सभी चीजें मनुष्य के लिए एक वरदान हैं। इसलिए हमें प्रकृति से प्रेम करना चाहिए। वन हमारी अमूल्य सम्पदा हैं। वे वर्षा को आकर्षित करते हैं। इस प्रकार नदियाँ, पर्वत, खनिज पदार्थ, वायु आदि सब प्राकृतिक साधन हमारे लिए अमूल्य हैं।
हमें उनकी उचित देखभाल करनी चाहिए, उनका सही उपयोग करना चाहिए और प्रकृति के प्रति प्रेम व्यक्त करना चाहिए। प्रकृति का प्रेम ही प्रभु श्रीराम और माता सीता के वनवासी जीवन का स्थायी भाव था। और, चित्रकूट पर्वत पर बिताए जीवन का सबसे बड़ा आनन्ददायी आकर्षण था – अनेक तापसों के आश्रम। क्या था इन आश्रमों का स्वरूप? ‘शरण्यं सर्व भूतानाम …’। सभी भूतमात्रों के ये आश्रम आश्रय स्थान थे। यहाँ किसी भी प्राणी का किसी दूसरे प्राणी के साथ बैर नहीं था। ऐसे शान्त, निश्चिन्त और एकान्त स्थान में रहने वाले तपस्यारत जीवन-साधकों के लिये प्राचीन भारत में एक ही धुन रहती थी – जीवन की एकात्मता की हर क्षण-हर पल अनुभूति। तब आनन्द के सिवा अन्य कुछ कैसे होगा यहाँ? अतः एकात्मकता का भाव व अपनापन ईश्वर को अनुभूत करने का सबसे सुगम और श्रेष्ठ साधन है …।

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