पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जीवन में उच्चतर लक्ष्यों की सिद्धि के लिए आत्म-अनुशासन आरम्भिक साधन है। जहाँ शील-संयम, सदाचार, मर्यादाओं का अनुपालन और जीवन की व्यवहारिक सीमाओं का सम्मान है, वहां देव अनुग्रह और प्राकृतिक अनुकूलताएँ सहज साकार होने लगती हैं ..! जिस प्रकार सागर तक पहुंचने के लिए सरिताओं में तटों का अवलम्बन आवश्यक है, उसी प्रकार जीवन में उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन परमावश्यक है। अनुशासन जीवन सिद्धि और सफलता का मूल मंत्र है। जो आत्मा की आवाज और आत्मानुशासन को मानता है उसे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह अपने आप सारे कर्म समय पर करता है, अच्छे करता है और लोक-मंगल को आकार देता है। आत्मा की आवाज और आत्म अनुशासन हर किसी के लिए वह प्राथमिक जरूरत है जिसकी बुनियाद यदि स्वीकार कर ली जाए तो पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक की सारी समस्याओं, विषमताओं और तनावों से मुक्ति का सुकून पाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए वंशानुगत संस्कारों, मातृभूमि के प्रति समर्पण और औदार्य भावना के साथ जन-मंगल से लेकर विश्व मंगल तक की सभी सेवाओं को निरपेक्ष भाव से आत्मसात करना आवश्यक है …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आत्मा हमारे जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु होने तक की एक-एक घड़ी और पल का हिसाब रखती है। हमारा कोई भी संकल्प, स्वभाव, व्यवहार और कर्म ऎसा नहीं है जो आत्मा नहीं जानती हो। जब हम अच्छे, मर्यादित और अनुशासित कर्मों को अपनाते हैं तब आत्मा की आवाज मुखर होती है और कई बार वह हमारे भावी अच्छे-बुरे के बारे में साफ-साफ संकेत भी करती है। जब हम सारी मर्यादाएं, अनुशासन और सीमाएं छोड़कर अपनी जिद पर उतर आते हैं, तब आत्मा की आवाज तो आती है मगर हमारे स्वार्थ, बाहरी चकाचौंध और क्षणिक भोग-विलास के कृत्रिम आनंद के शोर में वह दब जाती है और हमें सुनाई नहीें देती। फिर हम उन लोगों से घिरे रहते हैं जिनके लिए न आत्मा की आवाज का कोई महत्व है, न मनुष्यता का। यह वह अवस्था होती है जिसमें हम ईश्वर को भुला बैठते हैं और अपने आपको संप्रभु मानकर उन्मुक्त, उच्छृंखल और स्वेच्छाचारी गतिविधियों को अपना लेते हैं। इनमें हर तरह के खोटे कर्म करते हुए भी हमें आत्महीनता का अनुभव नहीं होता है। यह स्थिति हमारे शरीर के लिए तो आनंद का आभास कराने वाली होती है, लेकिन आत्मा से हमारा संबंध मात्र प्राण धारण तक ही रहता है। हम संकीर्णता ओढ़ लेते हैं। आत्मा से हम इतना अधिक दूर हो जाते हैं कि बार-बार वह हमें अपने भले-बुरे और भावी के बारे में संकेत करती रहती है, लेकिन हम अनसुना करते रहते हैं अथवा हम दिन-रात इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि एक क्षण के लिए भी आत्मा की आवाज सुनने की फुरसत नहीं होती। यही कारण है कि इस प्रकार के लोगों के लिए कहा जाता है कि इनकी आत्मा ही मर चुकी है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अनुशासन का महत्व समाज की सहायता के बिना मानव जीवन का अस्तित्व असम्भव है। सामाजिक जीवन को सुखी संपन्न बनाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इन नियमों को हम सामाजिक जीवन के नियम कहते हैं। इनके अंतर्गत मनुष्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से नियमित रहता है तो उसके जीवन को अनुशासित जीवन कहते हैं। अनुशासन मानव-जीवन का आवश्यक अंग है। मनुष्य को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह खेल का मैदान हो अथवा विद्यालय, घर हो अथवा घर से बाहर कोई सभा-सोसायटी हो, सभी जगह अनुशासन के नियमों का पालन करना पड़ता है। विद्यार्थी समाज की एक नव-मुखरित कली है। इन कलियों के अंदर यदि किसी कारणवश कमी आ जाती है तो कलियाँ मुरझा ही जाती हैं, साथ-साथ उपवन की छटा भी समाप्त हो जाती है। यदि किसी देश का विद्यार्थी अनुशासनहीनता का शिकार बनकर अशुद्ध आचरण करने वाला बन जाता है तो यह समाज किसी न किसी दिन आभाहीन हो जाता है। परिवार अनुशासन की आरंभिक पाठशाला है। एक सुशिक्षित और शुद्ध आचरण वाले परिवार का बालक स्वयं ही नेक चाल-चलन और अच्छे आचरण वाला बन जाता है। माता-पिता की आज्ञा का पालन उसे अनुशासन का प्रथम पाठ पढ़ाता है। परिवार के उपरांत अनुशासित जीवन की शिक्षा देने वाला दूसरा स्थान विद्यालय है। शुद्ध आचरण वाले सुयोग्य गुरुओं के शिष्य अनुशासित आचरण वाले होते हैं। ऐसे विद्यालय में बालक के शरीर, आत्मा और मस्तिष्क का संतुलित रूप से विकास होता है। विद्यालय का जीवन व्यतीत करने के उपरांत जब छात्र सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है तो उसे कदम-कदम पर अनुशासित व्यवहार की आवश्यकता होती है। अनुशासनहीन व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं, समस्त देश व समाज के लिए घातक सिद्ध होता है। अनुशासन का वास्तविक अर्थ अपनी दूषित और दूसरों को हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करना है। अनुशासन के लिए बाहरी नियंत्रण की अपेक्षा आत्मनियंत्रण करना अधिक आवश्यक है। अतः वास्तविक अनुशासन वही है जो कि मानव की आत्मा से सम्बन्ध हो, क्योंकि शुद्ध आत्मा कभी भी मानव को अनुचित कार्य करने को प्रोत्साहित नहीं करती …।
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