मनुष्य के संकल्प में ही उसका भवितव्य निहित : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – यह संसार प्रभु की अभिव्यक्ति है और प्रत्येक व्यक्ति भगवान की छवि में बनाया गया है। सभी के साथ सम्मान, दयालुता और प्रेम के साथ व्यवहार करें। सत्संग-स्वाध्याय द्वारा उपार्जित सद्विचारों की पूँजी ही मनुष्य जीवन की सिद्धि-संपूर्णता में सहायक है। वस्तुतः हमारे मनोगत भाव-विचार ही कालांतर में व्यवहार और संस्कारों के रूप में परिणत होकर जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं ! अतः वैचारिक शुभता-शुचिता के प्रति सहज रहें …! उत्कृष्टता से ही श्रेष्ठता जन्मेगी। मनुष्य के संकल्प में ही उसका भवितव्य निहित है। अपने जीवन के रचनाकार आप स्वयं ही हैं, अतः संकल्प में श्रेष्ठता – शुभता रहे। आशावादिता और संकल्प की दृढ़ता उन सभी सम्भावनाओं को साकार करती है; जो दुःसाध्य और असंभव सी प्रतीत होती हैं। बेहतर भविष्य के लिए आशावादिता व्यक्ति का पासपोर्ट होता है।
संसार की सारी सफलताओं का मूल मंत्र है – प्रबल इच्छा शक्ति। इसी के बल पर विद्या, संपत्ति और साधकों का उपार्जन होता है। सत्संग श्रेष्ठ वस्तु है। सत्संग से हमारा विवेक जागता है और चिंतन की धारा बदल जाती है। सत्संग का प्रतिफल अमृतत्व की अनुभूति है और कुछ नहीं। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा – ईश्वर ही सारे संसार के रंगमंच का निर्देशक है। वह किसी को साधु बनाता है, किसी को विरक्त बनाता है, किसी को गृहस्थ बनाता है तो किसी को वैज्ञानिक या डॉक्टर बनाता है। परमात्मा का स्मरण करने से उसकी प्रसन्नता की एक धारा हमारी ओर चल पड़ेगी। हमारी प्रसन्नता को परमात्मा की प्रसन्नता का थोड़ा सा अंश मिल जाएगा। हमारी प्रसन्नता और ईश्वर की प्रसन्नता एक हो जाएगी। तब आप यह कह सकेंगे कि मैं भी परमात्मा का हूँ और जो उसका है, वह मेरा है …।
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 पूज्य “आचार्यश्री जी” ने कहा कि श्रीमद्भगवद् गीता की शिक्षा का आज के युग में बहुत महत्व है। इसकी शिक्षा से मनुष्य में अहम की समाप्ति होती है तथा विचार शुद्ध होते हैं। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति ज्ञानी नहीं होता, उसका सादा जीवन और शुद्ध विचार ही उसे ज्ञानी बनाते हैं। देव-दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी हम प्रेम, एकता, परोपकार और सेवा आदि गुणों को धर्म के अनुसार नहीं कर रहे हैं। यह एक शाश्वत सत्य है कि जो आया है उसे एक दिन जाना है, लेकिन मनुष्य अज्ञानता व सत्संग के अभाव में ‘जाना’ भूल जाता है और तरह-तरह के सांसारिक लोभ-मोह के मायाजाल में फंसा रहता है। आत्मा तो अजर-अमर है, उसका विनाश नहीं होता। भक्ति मार्ग पर चलने वाला मनुष्य कभी मरता नहीं। सत्संग करने वालों और उसी के अनुसार अपने जीवन को ढालने वालों को कोई नहीं मार सकता। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि जागे हुए महापुरुषों के द्वारा प्राप्त सद्ज्ञान से ही जीवन का रूपांतरण संभव है।
तन को सजाने से मन को नहीं सजाया जा सकता। इसलिए मन की आंखों को खोलने की आवश्यकता है। प्राचीन काल में गुरुकुलों में बाहर की आंखों को बंद कर भीतर की आंखें खोलने का ज्ञान दिया जाता था, क्योंकि बाहर जो कुछ भी दिख रहा है वह नकली है, दिखावा है, भ्रम है। यहां तक कि महानतम वैज्ञानिक आइंस्टीन ने भी कहा है कि बाहर जो तुम संसार देख रहे हो वह सत्य नहीं है, वह तरंग है। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध भी यही कहते थे कि बाहर जो कुछ भी तुम्हें दिख रहा है वह भ्रम है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संसार में सब कुछ केवल ऊर्जा है, ऊर्जा का ही घनीभूत रूप पदार्थ है, जो सदैव अपना रूप बदलता रहता है। सत्य का दर्शन करना हो तो भीतर चलें, बाहर की यात्रा बंद करें। बाहर भागना छोड़ें, भीतर आपको कोई पुकार रहा है। इसलिए भीतर से बाहर की यात्रा में आपको परम सुख, परम शांति एवं परम आनंद की प्राप्ति होगी …।
         
 
 
 

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