पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आप्तकाम, पूर्ण-काम, निष्काम कोदंड-पिनाकधारी प्रभु श्रीराम का प्राकट्य दिवस “श्रीराम नवमी” कल्याणकारी एवं शुभ सिद्ध हो ..! प्रभु श्रीराम के दिव्य रूप और गुणों पर चिंतन और मनन करने से अन्तःकरण में पवित्रता, शुभता उदारता की भावनायें आती हैं और दिव्यता का प्रस्फुटन होता है ! जगतपिता भगवान महाशिव अपनी अर्धांगिनी माँ पार्वती से कहते हैं – “उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना …”॥ अर्थात्, हे उमा ! जिसने प्रभु श्रीरामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती। भगवान राम के स्वभाव में करुणा है।
श्रीराम का स्वभाव क्या है? कोई अपराध करे भी तो श्रीराम को क्रोध नहीं आता। राम में क्रोध हो तो क्रोध आए। इसलिए परम को जानने के लिए उनके विग्रह की चर्चा करना आवश्यक है। वे कभी किसी की पीड़ा देख नहीं पाते हैं, प्रभु का एक स्वभाव यह भी है। राम के स्वभाव में करूणा है। राम समान प्रभु दूसरा नहीं। रावण का वह प्रभाव श्रीराम के स्वभाव से हार गया और श्रीराम का जो स्वभाव है उसके पीछे गुरुसत्ता है। भगवान राम के इस लोक-कल्याणकारी स्वभाव में महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्त, जमदाग्नि, जैसे अनेक महान ऋषियों का योगदान है। इसलिए जहाँ ज्ञान और विचार है, वहीं शांति और समाधान है। मनुष्य को किसी के प्रभाव को नहीं, बल्कि उसके स्वभाव को देखकर उसके सानिध्य में आना चाहिए। मनुष्य का मूल स्वभाव शांति का है, लेकिन किसी कारण से जीवन में हलचल होती है तो वह अशांत हो जाता है। श्रीरामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें प्रसन्नता के साथ सभी वृत्तियों से निवृत्त होकर यदि उसे जीवन में उतार लिया जाये तो फिर शांति के लिए और कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – श्रीराम और श्रीकृष्ण इस राष्ट्र के प्राणतत्व हैं। जो राष्ट्र का मंगल करें, वही राम है। जो लोकमंगल की कामना करें, वही राम है। राम सबसे आदर्श और मर्यादित व्यक्तित्व है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन संघर्षमय रहा। लेकिन, विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने मर्यादा कभी नहीं छोड़ी और वानर, भालू, रीछ आदि को साथ लेकर लंकापति रावण का दमन किया। जहां नीति है, धर्म है, वहां श्रीराम साथ हैं। इसलिए संसार में उनसे बड़ा आदर्श पुरुष दूसरा कोई नहीं हुआ। शिष्य जिस दिन अपने भीतर के गुरु को जान जाता है, उसी दिन गुरु कृत-कृत्य हो जाता है। यही सच्ची मुक्ति और स्वतंत्रता की अनुभूति है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि मनुष्य वस्तुत: मूल रूप से शांत स्वभाव का है, परन्तु, किसी कारणवश उसके जीवन में अशांति आ जाती है और इसी अशांति के चलते वह विद्रोह कर बैठता हैं, लेकिन विद्रोह के बाद भी वह शांति ही चाहता है। सद्गुरु अपने सभी शिष्यों के स्वभाव से पूरी तरह से परिचित होते हैं और समय-समय पर वे शिष्यों को भगवान के सरल और सहज स्वभाव के बारे में अवगत भी कराते हैं। मानव-शरीर बड़ी साधना और तपस्या के पश्चात मिलता है। यह ईश्वरीय प्रसाद है। भवसागर को पार करने के लिए यह शरीर एक दृढ़ नौका के समान है।
जो मनुष्य इस साधन का उपयोग करके भवसागर से पार नहीं उतरता, वह आत्मघाती है। आज धन-संपत्ति को सबसे अधिक महत्व दिया जा रहा है। मानव के लिए अर्थोपासना ही आज सर्वस्व है। अर्थप्राप्ति और विनाश में ही सुख-दु:ख की कल्पना निहित है। परन्तु, अर्थ की प्राप्ति से अर्थाभाव जन्य कष्टों का निवारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थप्राप्ति आवश्यकताओं को जन्म देती है। पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि अत्यंत विषयकवाद भी अपराध को जन्म देता हैं। तरुणाई भी अपराध का जनक है, क्योंकि तरुणाई में यदि संग अच्छा रहा तो ठीक है, अन्यथा अपराध से बचा नहीं जा सकता। मनुष्य को धन अवश्य कमाना चाहिए, लेकिन अपने पुरुषार्थ से, न कि किसी छल-कपट से। पुरुषार्थ से कमाए धन को समय आने पर दोनों हाथों से बांटना भी चाहिए। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा- आनंद का स्रोत्र है – आत्म-चिंतन। संसार की संपूर्ण चिंताओं के मूल में वासना है। उन्हें रोकने का एक मात्र उपाय उनके यथार्थ स्वरूप का चिंतन है। वासनाजन्य चिंताएं हमारी अशांति का कारण हैं। और, इसकी एकमात्र औषधि है – आत्म-चिंतन। आत्म-चिंतन सभी शक्तियों का मूल है, आनंद का स्रोत्र है तथा संयम का एकमात्र साधन है। इस प्रकार मानव संयम के बिना मानव कहलाने का अधिकार नहीं है। अतः मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति में संयम बनाए रखकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए …।
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