पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मनुष्य का भ्रम, भय और अनेक प्रकार के दु:ख अज्ञान के कारण हैं, अतः विवेक और विचार के द्वारा आनंद को उपलब्ध हुआ जा सकता है…! जब बुद्धि को अपने अज्ञान का बोध हो जाता है तब उसे विवेक कहा जाता है। विवेक के द्वारा ही हमें स्थायी समाधान मिल सकता है। समाधि का आशय यहां समाधान से है। बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो हर पल अपने समाधान में रहता है। जब आप समाधान में रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से आपके होंठों पर एक मुस्कान आ जाएगी और आपके आसपास एक प्रसन्नता छा जाएगी। अज्ञानता को दूर करके अपने स्वरूप का ज्ञान करवाने वाला ही सच्चा गुरू होता है। “हमारे जीवन की स्वप्न की प्रक्रिया” पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि स्वप्न हमारे अवचेतन मन से आते हैं। गुरू इस अवचेतन मन को जगाकर ज्ञान का बोध करा देते हैं। अंधकार या नींद को दूर करके ज्ञान का प्रकाश हमारे जीवन में गुरू ही जलाते हैं। जो अपने और पराये के भेद को मिटाकर आत्मा के धरातल पर अनुभव करा दें, वह सच्चे गुरू होते हैं। गुरू हमें अस्तित्व से संघर्ष करना, सामंजस्य करना सिखाते हैं एवं अपूर्णता में पूर्णता का बोध कराते हैं। अतः गुरू के प्रति समर्पण की भावना अति आवश्यक है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हर स्थिति में समता ही ज्ञान है, और विषमता ही अज्ञान है। सबकुछ पाने व भोगो को भोग लेने की लालसा के कारण व्यक्ति अपने स्वभाव से भ्रमित हो जाता है, जिसका दुष्परिणाम होता है कि वह बाहरी वस्तुओं को तलाशने लग जाता है। अज्ञानता के ही कारण क्रोध, मोह-माया, अहंकार आदि उत्पन्न होते हैं। हम ध्यान एवं स्वाध्याय से अज्ञानता को दूर कर सकते हैं। अपनी इच्छाओं व वृत्तियों को समेटने से शांति मिलती है। जब तक संतोष या सब्र नहीं, तब तक शांति नहीं है। हमें संयम रखना होगा। स्वयं की पहचान नहीं कर पाने के कारण ही लोग आज दुखी हैं। स्वयं के प्रति अज्ञानता व अल्प ज्ञान ही इसका मूल कारण है। अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मैं श्रीगुरवे नमः …। वेदांत ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठसाधना आत्मतत्व को जानने के प्रयास को कहा गया है। साध्य आत्मज्ञान ही तो है। साध्य सदैव सबके पास है, बस उस प्राप्त को जानने के लिए ही समस्त साधनाएं हैं। पदमभूषण निवृत्त शंकराचार्य महामण्डलेश्वर परम पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज (परम गुरुदेव जी) ने कहा कि जीवन में भ्रम, भय, अज्ञान, जड़ता और अकर्मण्यता से मुक्ति के लिए श्रवण ही एकमात्र साधना है। हमारे शास्त्रों में भी इसे श्रेष्ठ माना गया है। अपने आशीषवचनों में परम गुरुदेव जी ने कहा – मैं स्वामीजी और अन्य संतों की कथाओं का उद्घाटन करने नहीं, अंतर्मन को उद्घाटित करने जाता हूं। मैं कथा नहीं करता, सिर्फ शब्दों के पुष्प अर्पित करता हूं और यही प्रार्थना करता हूं कि यहां जो मंगलदीप प्रकट हुआ है, उसकी लौ कभी मंद न हो…।
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