पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनम् …। मानवीय-काया ईश्वरीय उपहार है, इसलिए शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्वास्थ्य रक्षण मनुष्य की प्राथमिकता होनी चाहिये। स्वस्थ्य तन और पवित्र मन जीवन की बड़ी उपलब्धि है। विश्व स्वास्थ्य दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ..! शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। अर्थात्, शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है। शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। स्वस्थ रहने पर ही कोई अपना और दूसरों का भला कर सकता है। महर्षि चरक ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों का मूल आधार स्वास्थ्य ही है। यह बात अपने में नितांत सत्य है। मानव जीवन की सफलता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने में ही निहित है, परंतु सबकी आधारशिला मनुष्य का स्वास्थ्य है, उसका निरोग जीवन है। रूग्ण और अस्वस्थ मनुष्य न धर्म-चिन्तन कर सकता है, न अर्थोपार्जन कर सकता है, न काम प्राप्ति कर सकता है, और न ही मानव-जीवन के सबसे बड़े लक्ष्य मोक्ष की ही उपलब्धि कर सकता है, क्योंकि इन सबका मूल आधार शरीर है। इसलिये कहा गया है कि – ‘‘शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम् ..!’’
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – यह देह देवालय, शिवालय है। यह शरीर भगवान का मन्दिर है। इसे शराब पीकर सुरालय, तम्बाकू आदि खाकर रोगालय और मांसादि खाकर इसे मरघटालये नहीं बनाएं। ऋत्भुक्, मित्भुक् व हितभुक् बनें। समय से, सात्विक, संतुलित व सम्पूर्ण आहार का सेवन कर शरीर को स्वस्थ बनायें। दुनिया में स्वास्थ्य से बढ़कर कुछ भी नहीं होता और शरीर अगर स्वस्थ हो तो सब कुछ अच्छा लगता है, हृदय को सुकून मिलता है और मन शांत रहता है। लेकिन, अगर हम थोड़ा भी बीमार पड़ते हैं तो सारी दुनिया अधूरी सी लगने लगती है। इसलिए स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन कहा गया है। अच्छा स्वास्थ्य जीवन के समस्त सुखों का आधार है। धन से वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं, परंतु उनका उपभोग अच्छे स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। धनी व्यक्ति यदि अस्वस्थ है तो उसके धन का कोई मूल्य नहीं। गरीब यदि स्वस्थ है तो फिक्र की कोई बात नहीं, क्योंकि उसके पास स्वास्थ्य रूपी धन है। उसके पास जो कुछ भी है वह उसका उचित उपभोग कर सकता है। अच्छे स्वास्थ्य में एक तरह का सौन्दर्य होता है। जो अच्छे स्वास्थ्य से युक्त है उसके मन में उत्साह और उमंग होती है। वह अपना कार्य चिंतामुक्त होकर करता है। वह कठिनाइयों से नहीं घबराता, हर समय ऊर्जावान रहता है। उसे दुर्बलता और थकान नहीं आती। दूसरी तरफ बिगड़े हुए स्वास्थ्य वाला व्यक्ति हर समय उदास, दुःखी और विचलित रहता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह स्वास्थ्यप्रद जीवनशैली अपनाए और अपने तन को स्वस्थ और मन को आनंदित रखे ..।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – व्यायाम से शरीर में रक्तसंचार नियमित रहता है। इससे शरीर और मस्तिष्क की वृद्धि होती है। व्यायाम से मनुष्य का शरीर सुगठित और शक्ति सम्पन्न होता है। मनुष्य में आत्म-विश्वास और वीरता, आत्म-निर्भरता आदि गुणों का आविर्भाव होता है। स्वास्थ्य रक्षा के लिये विद्वानों ने, वैद्यों ने और शारीरिक विज्ञान-वेत्ताओं ने अनेक साधन बताये हैं। जैसे-संतुलित भोजन, पौष्टिक पदार्थों का सेवन, शुद्ध जलवायु का सेवन, परिभ्रमण, संयम-नियम पूर्ण जीवन, स्वच्छता, विवेकशीलता, व्यायाम, निश्चिंतता इत्यादि। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये साधन स्वास्थ्य को समुन्नत करने के लिए रामबाण की तरह अमोध हैं, परंतु इन सब का ‘गुरू’ व्यायाम है। व्यायाम के अभाव में स्वास्थवर्धक पौष्ठिक पदार्थ किसी काम के नहीं हैं। व्यायाम के अभाव में विवेकशीलता भी अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा सकती, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचार रहा करते हैं। स्वास्थ्यहीन व्यक्ति अविवेकी विचारशून्य, आलसी, आकर्मण्य, हठी, क्रोधी, झगड़ालू आदि सभी दुर्गुणों का भण्डार होता है। स्वास्थ्य का मूल मन्त्र व्यायाम है। व्यायाम से मनुष्य को असंख्य लाभ हैं। सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह कभी भी रोगग्रस्त नहीं होता और दीर्घजीवी होता है। जो व्यक्ति नियमित रूप से व्यायाम करता है, उसे बुढ़ापा जल्दी नहीं आती और अंतिम समय तक शरीर में शक्ति बनी रहती है …।
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