पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – श्रेष्ठ, महनीय और सद्गुण-सम्पन्न जीवन एक सुन्दर-सुविकसित उद्यान की भांति है, इसकी सिद्धि और साकारता के लिए श्रद्धा-विश्वास रूपी खाद-बीज, सत्संग-स्वाध्याय का पोषण एवं अहंकार रूपी पर्ण-समूह का निर्मूलन नितान्त अपेक्षित है ..! श्रद्धा का परिणाम सदैव शुभदायक और मंगलकारी होता है। इसलिए श्रद्धावान व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी अपने आत्मबल के सहारे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को संभाले रहता है। सच्चे श्रद्धालुओं के सभी संकल्प पूर्ण हो जाते हैं। यदि हमारा मन निर्मल है, हमारी मनोभूमि में अवगुणों का प्रदूषण नहीं है और हम दुर्व्यसनों के शिकार नहीं हैं, तो श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के अंकुर पल्लवित होने में देर नहीं लगती। हम शीघ्र ही श्रद्धावनत हो जाते हैं तथा ईश कृपा के पात्र बन जाते हैं। श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है, क्योंकि श्रद्धा सदैव अन्तःकरण के अनुरूप होती है, इसलिए मनुष्य को सदैव सात्विक श्रद्धा से युक्त रहना चाहिये। श्रद्धा तप है।
वह ईश्वरीय आदेशों पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा देती है एवं आलस्य से बचाती है। यह कर्तव्य पालन में प्रमाद से बचाती है। सेवा धर्म सिखाती है। अन्तरात्मा को प्रफुल्ल व प्रसन्न रखती है। इस प्रकार तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के हृदय में पवित्रता एवं शक्ति का भण्डार अपने आप भरता चला जाता है। आचार्य द्रोण की तरह गुरु कुछ भी न दे तो भी श्रद्धा में वह शक्ति है जो अनन्त आकाश से अपनी सफलता के तत्व और साधन को आश्चर्यजनक रूप से खींच लेती है। ध्रुव, एकलव्य, अज, दिलीप की साधनाओं में सफलता का रहस्य उनके अन्तःकरण की श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओं ने तो केवल उनकी परख की है। यदि इस तरह की श्रद्धा आज भी लोगों में आ जाए और लोग पूर्ण रूप से परमात्मा की इच्छाओं पर चलने को कटिबद्ध हो जायें तो विश्वशाँति, चिर-सन्तोष और अनन्त समृद्धि की परिस्थितियाँ बनते देर न लगे। उसके द्वारा सत्य का उदय, प्राकट्य और प्राप्ति तो अवश्यम्भावी हो ही जाता है। इसी बात को शास्त्रों में संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है – “श्रद्धायांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमविरेणाधिराच्छति”॥ (गीता) … अर्थात्, “जितेन्द्रिय तथा श्रद्धावान पुरुषों को ही ज्ञान मिलता है और ज्ञान से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है तथा सत्य समुपलब्ध होता है …”।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है। पार्थिव वस्तुओं से ऊपर उठने के लिए सरलता और पवित्रता इन्हीं दो गुणों की अत्यन्त आवश्यकता होती है। इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा उतना ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता के द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती है और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति। श्रद्धा दोनों का सम्मिलित स्वरूप है। उसमें भावना भी है और रस भी। जहाँ उसका उदय हो वहाँ लक्ष्य प्राप्ति की कठिनाई का अधिकाँश समाधान शीघ्र हो जाता है। जिस प्रकार कमल कीचड़ में खिला रहता है, गुलाब काँटों के बीच में भी रहकर हँसता रहता है, उसी प्रकार शान्त व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी कभी असंयमित नहीं होता। कर्म-क्षेत्र में रहते हुए भी हमारे मन की प्रसन्नता बनी रहे, हम मानसिक रूप से कभी अशान्त न हों, इसके लिए सदैव सजग, सक्रिय और सचेष्ट रहने की आवश्यकता होती है।
यदि हमारे मन में श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के पुष्प नहीं खिले, तो हमें सुख-सुविधाओं के बीच रहकर भी प्रभु की विराट छवि के रूप में शीतल छाया की अनुभूति नहीं हो सकती। इस प्रकार मनुष्य अपने गुरु और प्रभु के प्रति श्रद्धा और विश्वास के साथ अपना सब कुछ सौंप कर गुरु के बताए मार्ग पर चलकर प्रभु का भजन करे, यही मानव धर्म है और इसी में जीवन की सार्थकता निहित है। तो आइए! हम सब सकारात्मक बनें और मिलकर सकारात्मक दिशा में कदम उठाएँ …।
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