पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शुभ कर्म संलग्नता ही इहलौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं का मूल है। ज्ञान, विवेक और विचार का आश्रय लेकर किए गए शुभ-कर्म निश्चित ही फलीभूत होते हैं, इसलिए मनुष्य जीवन की सिद्धि के लिए अहर्निश पारमार्थिक कार्यों में संलग्न रहें ..! मानव जीवन प्रभु की अनुपम देन है। जीवन को सार्थक बनाने के लिए निरंतर प्रभु नाम स्मरण करते हुए हरपल शुभ-कर्म करते रहें। शुभकर्म ही जीवन की महानता का आधार है, शुभकर्म निरंतर करने से मन को एक विशेष प्रकार की शांति व आनंद की अनुभूति होती है। श्रेष्ठ कर्म दो प्रकार के होते हैं। एक सकाम कर्म और दूसरा निष्काम कर्म। सकाम कर्म करने से मनुष्य को वर्तमान जीवन में फल मिलता है और निष्काम करने से भविष्य का निर्माण होता है। शास्त्रों ने श्रेष्ठ कर्म को ही धर्म माना है। हमने अच्छे कर्म किए थे तो हमें मनुष्य का जीवन मिला हुआ है। जीव जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है, इसलिए हमें शुभ कर्म करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों में वह शक्ति है जिससे मनुष्य अल्प साधनों में भी सुख, शान्ति और संतोषपूर्वक जीवन का आनन्द भोग सके। साँसारिक सफलतायें भले ही न मिलें पर उस व्यक्ति का मनोबल, आत्मबल इतना ऊँचा होगा कि उसे किसी बात का अभाव महसूस नही होगा। इसलिए उसके जीवन में मस्ती होगी, वह निर्भय होगा, स्वावलम्बी होगा और अनेक लोगों का भी मार्ग दर्शन कर रहा होगा …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जीवन में दो चीजें यथावत रहती है और वह है – प्रकाश और अंधकार। मानव में स्पर्धा के भाव होने चाहिए, क्योंकि बिना स्पर्धा के विकास संभव नहीं है। जीवन युद्ध में, वर्तमान संदर्भ में धर्म अर्थ की सार्थकता के चलते मनोजय आवश्यक है। बिना मनोजय के संसार को जीतना आसान नहीं। क्लेश की आग में तप रहा मानव अगर चाहता है कि वह सदा सुखी रहे, तो उसे जितेन्द्रिय बनना होगा। अतः सुख, शांति एवं समृद्धि पाने के लिए प्रकाश का ध्यान करें। प्रकाश हमारे जीवन की स्वाभाविक मांग है। प्रकाश से जीवन के सभी यथार्थ व अर्थ प्रकट होते हैं। जिसमें सबसे प्रथम गुरु की मांग होती है। गुरु वह है जो बोध करवाता है। गुरु के माध्यम से जीवन में अंक व आखर से लेकर सदाचार, लोकाचार, कष्टों का निवारण भ्रम, भय व अंधकार दूर होते हैं। प्रकाश के बिना मानव अपने को जान नहीं सकता। प्रकाश और अंधकार के बीच की दूरी ही दुःख, निराशा और तनाव है। आप ज्यों ही प्रकाश के निकट उसकी सुरक्षा में चले जाते हैं तो उस अभेद, कभी न टूटने वाला सुरक्षा में दुःख एवं तनाव की कोई जगह नहीं होती। यह कोई मायने नहीं रखता कि आप कितने अकेले हैं। आप सर्वदा एक दिव्य प्रकाश के द्वारा चारो तरफ से घिरे हुए एवं सुरक्षित हैं। अतः यह आप पर निर्भर करता है कि आप उस दिव्य प्रकाश को अपने अंदर आने देते हैं या नहीं …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वास्तव में परमात्मा ने मानवीय अन्तःकरण में ज्योति के रूप में ही प्रचुरता से भरा एक दिव्य प्रकाश पुंज प्रज्वलित किया है। वह प्रकाश पुंज अनंत प्रचुरता से भरा है और वहाँ कभी कुछ भी नहीं घटता। अँधेरे में उस प्रकाश की खोज करना ही ध्यान प्रक्रिया है। वह परम प्रकाश आपके अंतर में सदा सर्वदा प्रस्तुत है। अंधकार के इस आंतरिक मार्ग के चरम सीमा पर उस परम प्रकाश के समीप पहुँचकर जीवन का सर्वोतम संगीत अनुभूत किया जा सकता है। प्रकाश के सहारे आप जीवन में जो चाहें वही पा सकते हैं। इसकी कोई सीमा नहीं है। सत्य और सुन्दर जीवन जीने के लिए बस एक बात के प्रति दृढ़ता पूर्वक खड़े रहना होगा कि एक दिव्य प्रकाश सभी मनुष्यों में विद्यमान है और सब में वह एक ही समाया हुआ है, दूसरा कोई नहीं। उस प्रकाश में एक प्रबल आकर्षण शक्ति है। जैसे सूर्य किसी को अपने प्रकाश से वंचित नहीं करता, परन्तु मनुष्य को प्रकाश की प्राप्ति के लिए कर्म करना पड़ता है। वैसे ही परम प्रकाश जो परम सत्य है उसको प्राप्त करने के लिए परम सत्य तक पहुँचना पड़ता है। परम सत्य तो अपना प्रकाश सबको एक सामान देता है, परन्तु मनुष्य वो कर्म करना भूल जाता है। उस परमपिता को याद करना भी तो एक कर्म है और जो व्यक्ति इस बात को समझ जाए वो कभी भी परम प्रकाश से वंचित नहीं रह सकता …।
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