पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – वैचारिक सम्पन्नता एवं उच्चतम जीवन मूल्य ही मनुष्य जीवन को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं, क्योंकि हमारे मनोगत भाव-विचार ही कालांतर में व्यवहार और संस्कारों के रूप में अभिव्यक्त होकर जीवन की दिशा-दशा निर्धारित करते हैं। अतः जीवन-सिद्धि के लिए वैचारिक शुचिता स्थिर रहे ..! वैचारिक पवित्रता ही समस्त समस्याओं का समाधान है। जीवन की संतुष्टि का आधार है – वैचारिक सम्पन्नता। अर्थात्, जीवन की संतुष्टि का हमारी सोच और विचारों से बड़ा गहरा सम्बंध होता है। कहा जाता है कि हम जैसा सोचते हैं वैसा ही बनने की कल्पना भी करते हैं, मन में भी वैसे ही विचार उत्पन्न होते हैं। कोई भी कर्म सर्वप्रथम मन में विचार रूप में जन्मता है। इस विचार पर आंतरिक चिंतन-मनन होता है और फिर उसे कार्य रूप में परिणित करने की इच्छाशत्ति जागृत होती है। तब मनुष्य वह कार्य करता है।
उसके कर्मों से ही अंतत: उसके चरित्र का निर्माण होता है। जीवन पर अपनी एक पकड़ बनाए रखने का एक ही उपाय है – उचित और गहन चिंतन। उचित चिंतन का गहन चिंतन में परिणत हो जाना अति उत्तम है। आत्म निरीक्षण की आदत डाले बिना मन के अंदर क्रियाशील सभी विचारों पर उचित नियंत्रण रख पाना असंभव है। अंत:करण में मन, विक्षेप और आवरण तीन दोष होते हैं। जब तक इन दोषों को दूर करके मन को शुद्ध, पवित्र और निर्मल नहीं बना लिया जाता, उसमें दूषित विचार जन्म लेते रहते हैं। वैचारिक पवित्रता होने पर ही हमारे आचरण व कर्म में उत्कृष्टता के दर्शन हो सकते हैं। गीता का उपदेश है कि मनुष्य को निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। हम ऐसा कोई भी कर्म नहीं कर सकते, जिससे कहीं कुछ भला न हो; और ऐसा भी कोई कर्म नहीं है, जिससे कहीं न कहीं कुछ हानि न हो। प्रत्येक कर्म अनिवार्य रूप से गुण-दोष से मिश्रित रहता है।
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सत् और अस्त दोनों प्रकार के कर्मों की जड़ हमारे मन में ही विकसित होती है। मन में अच्छे विचार उत्पन्न होंगे तो हमारे कर्म भी शुभ होंगे। हमें अपने मन में पनपने वाले कुविचारों को समूल उखाड़ फेंकने का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए। भारतीय संस्कृति में मन की असीम शक्ति और अपार सामर्थ्य का सदैव अनुशीलन किया जाता है। संस्कार, परिष्कार और संशोधन द्वारा मन में से अवांछनीय तत्वों, दुर्गुण-दोष आदि को हटाकर उनके स्थान पर सद्गुणों को प्रतिष्ठापित करना ही हमारी संस्कृति का मूल आधार है। इसी से दुर्गुणों, दुर्विचारों और दु:खदायी तत्वों को मन में प्रवेश करने से रोका जा सकता है तथा उनके स्थान पर शुभ तत्व, शुभ विचार और सद्गुरु अपनी सुगंध फैलाने लगते हैं। आत्मशोधन का यह क्रम जीवन भर चलता रहना चाहिए। इससे सत्कर्मों के द्वारा मानव जीवन देवत्व की ओर अग्रसर होता है। कुविचार और कुसंस्कार हमारे मन में प्रवेश करने का साहस नहीं कर पाते, इससे जीवन पवित्र और निर्मल बनता है। अत: आत्मशक्ति का सदुपयोग करें …।
पूज्य ‘आचार्यश्री” जी ने कहा – आत्म-संतुष्टि एक बड़ा ही प्यारा और आनंदित करने वाला शब्द है, संतुष्टि मस्तिष्क की उस अवस्था को दर्शाता है, जब हम भीतर से खुश होने लगते हैं। हमें लगने लगता है ‘आल इज वेल’ और फिर वर्तमान और भविष्य दोनों हमें सुखद प्रतीत होने लगते हैं। सम्पन्नता ही नहीं विपन्नता भी सुख देती है। पूज्य “आचार्यश्री” जी का कहना है कि सुखी जीवन के लिए बेतहाशा धन-दौलत की जरूरत नहीं है, अभावों में रहकर भी सुख का वरण किया जा सकता है। आज कोई भी पूरी तरह संतुष्ट नजर नहीं आता। संपन्न लोगों की अपेक्षा विपन्न लोग ज्यादा सुखी जीवन जीते हैं।
संपन्नता में जीवन जीने वाला व्यक्ति अधिक दु:खी है। वह परिस्थितियों का रोना भी अधिक रोता है। विपन्न शिकायत कम करता है, वह अपने कार्य में मग्न रहता है। अपना जीवन, उस अव्यक्त शक्ति के प्रति आस्थावान होकर बिताता है। मजदूर की मीठी नींद के आगे सबकुछ छोटा है। शांति भरी निद्रा के लिए सम्पन्नता और पैसा क्या काम आयेगा? खुश रहने के लिए सम्पन्न्ता जरूरी नहीं। संपन्नता के होने पर भी भोजन और नींद , यह दोनों इनके वश में नहीं होता। वैभव में सुख है, इससे यह भ्रम टूट जाता है। अभाव में जीने वाले को कठिनाई अवश्य होती है, परंतु जिसे अभाव नहीं है, वह सुखी रहता है, ऐसा भी नहीं है। किसी को संपन्नता मिल गई, तो घर में कोई बालक नहीं है। यदि बालक है, तो कुसंस्कारी है, उसकी चिंता रहती है। विचार आता है कि ऐसी संतान न होती, तो ठीक था। कोई अस्वस्थ रहता है, जिससे प्राप्त चीजों का उपभोग ही नहीं कर पाता। इसी प्रकार इस संसार में हर किसी को कोई न कोई चिंता लगी ही रहती है। सबको अनुकूलता कहां मिल पाती है? अतः यदि हम अपने प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर जीना सीख लेंगे तो हमें जीवन में किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी। इसलिए प्रतिकूल को अनुकूल बनाने से ही जिंदगी में सुख व आनन्द आएगा …!
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