न्यूज़ डेस्क : मध्यप्रदेष में वर्ष 1994 से ओबीसी को शासकीय सेवाओं में 14 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। चूंकि अनुसूचित जनजाति को 20 फीसदी एवं अनुसूचित जाति को 16 फीसदी आरक्षण पूर्व से दिया जा रहा था अतः तथाकथित 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को ध्यान में रखते हुये 52 फीसदी आबादी को मात्र 14 फीसदी आरक्षण दिया गया। आरक्षण लागू होने के समय से ही आरक्षण का प्रतिषत बढ़ाने की मांग ओबीसी से जुड़े सामाजिक संगठन करते आये हैं। इसी के परिणाम स्वरूप 30 जून 2003 को तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ओबीसी आरक्षण 14 से 27 फीसदी बढ़ाने का आदेष जारी किया था। तत्समय बढ़ाये गये आरक्षण को विधानसभा से पारित नहीं कराया जा सका।
इस आरक्षण के खिलाफ माननीय उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई। उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनते ही दिनांक 4 दिसम्बर 2003 को न्यायालय द्वारा इस पर स्थगन दे दिया गया। उमा भारती कुछ माह ही मुख्यमंत्री रही। उमा भारती के समय यह स्थगन जारी रहा। उनके बाद मुख्यमंत्री बने बाबूलाल गौर ने स्थगन को रिक्त कराने हेतु कोई प्रयास नहीं किया। बाबूलाल गौर के बाद 13 वर्ष तक प्रदेष के मुख्यमंत्री रहे षिवराज सिंह चैहान ने भी इस दिषा में कोई कार्य नहीं किया। षिवराज सरकार के समय प्रकरण की ठीक से पैरवी तक नहीं की गई जिसके फलस्वरूप 13 अप्रैल 2014 को न्यायालय द्वारा 27 फीसदी आरक्षण को अंतिम रूप से रद्ध कर दिया गया। नवम्बर 2018 तक भाजपा की सरकार रहते मात्र 14 फीसदी आरक्षण ही ओबीसी को मिला।
ओबीसी हितों के लिये कार्यरत सामाजिक संगठनों द्वारा किये गये प्रयासों के फलस्वरूप नवम्बर-दिसम्बर 2018 में विधानसभा चुनाव के पूर्व म.प्र. की कांग्रेस ईकाइ ने अपने वचन-पत्र में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया। सत्ता में आने के बाद कमलनाथ सरकार ने 8 मार्च 2019 को प्रदेष में 27 फीसदी आरक्षण देने हेतु अध्यादेष जारी कर अपने वचन को निभाया। विडम्बना देखिये कि विगत 15 वर्षों से ओबीसी के दम पर सत्ता भोग रही भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में ओबीसी आरक्षण के संबंध में कोई उल्लेख ही नहीं किया। त्रासदी देखिये कि ओबीसी के छद्दम नेता षिवराज सिंह चैहान ने 13 वर्षों तक प्रदेषवासियों को लगातार गुमराह कर ओबीसी के दम पर ही प्रदेष की सत्ता भोगी। षिवराज ने एस.सी./एस.टी. पदोन्नति आरक्षण को लेकर तो यह बयान दिया कि इस आरक्षण को ‘कोई माई का लाल‘ समाप्त नहीं कर सकता लेकिन ओबीसी आरक्षण के संबंध में रहस्यमय चुप्पी ओढ़े रखी। शायद उन्हें यह भ्रम था कि पूर्ववत ओबीसी बगैर कुछ किये ही उन्हें वोट दे देगें।
कांग्रेस सरकार ने न सिर्फ ओबीसी आरक्षण हेतु अध्यादेष जारी किया अपितु इसके नोटीफिकेषन के साथ ही माननीय उच्च न्यायालय की तीनों शाखाओं में कैवियट भी दायर किया ताकि सरकार का पक्ष सुने बगैर न्यायालय द्वारा इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया जा सके। कांग्रेस सरकार द्वारा समस्त सावधानी बरते के बावजूद जबलपुर निवासी मेडिकल छात्रा असिता दुबे और भोपाल निवासी ऋचा पांडे एवं सुमन सिंह द्वारा दाखिल याचिका पर उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 19.03.2019 को ओबीसी छात्रों को मेडिकल एजुकेषन में 14 से बढ़ाकर 27 फीसदी आरक्षण देने पर अंतरिम रोक लगा दी। ज्ञातव्य है कि उच्च न्यायालय द्वारा मात्र मेडिकल एजुकेषन विभाग की नीट पीजी कांउसलिंग के संबंध में ही यह स्थगन दिया गया लेकिन प्रदेष से प्रकाषित ज्यादातर समाचार पत्रों ने ऐसी खबर बनाई कि न्यायालय द्वारा ओबीसी आरक्षण पर ही रोक लगा दी गई है, जो सही नहीं होकर भ्रम पैदा कर रही हंै। हां, अंतरिम रोक से इस बात की संभावना जरूर प्रबल हो गई है कि भविष्य में न्यायालय शासकीय सेवाओं के संबंध में भी ऐसा रूख अपना सकता है जिसके लिये सरकार को आवष्यक सतर्कता बरतनी होगी।
गौरतलब है कि जिस आधार पर माननीय न्यायालय द्वारा मेडिकल एजुकेषन के संबंध में उपरोक्त रोक लगाई गई है उसका मुख्य आधार इंद्रा साहनी केस में दिया गया वह फैसला है जिसमें आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होने की बात की गई है। ध्यान रहे कि विषेष परिस्थितियों में कोई भी सरकार किसी वर्ग विषेष के लिये उचित कदम उठा सकती है और 50 फीसदी की सीमा बाध्यकारी नहीं है। तमिलनाडु में इसी आधार पर अनुसूचित जाति-जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये 69 प्रतिषत आरक्षण का प्रावधान किया हुआ है, जो वर्तमान में जारी है। तत्कालीन तमिलनाडु सरकार द्वारा इस आरक्षण विधेयक को विधिवत विधानसभा से पारित कर केन्द्र सरकार द्वारा संविधान संषोधन कराकर संविधान की 9वीं अनुसूची में डलवाया गया है जिससे यह विधेयक न्यायिक समीक्षा के बाहर हो गया है। तत्कालीन केन्द्र सरकार द्वारा इस विधेयक के संबंध में संविधान में 76वां संषोधन किया गया है।
लोकसभा चुनाव हो जाने के बाद म.प्र. की कांग्रेस सरकार को भी 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को विधानसभा से पारित कराना होगा। विधानसभा से पारित कराने उपरांत इसे केन्द्र को भेजकर तमिलनाडु की तरह संविधान संषोधन कराकर संविधान की 9वीं अनुसूची में डलवाना होगा ताकि यह आरक्षण न्यायिक समीक्षा से बाहर हो सके। आजकल पिछड़ा वर्ग के विभिन्न संगठनों के पदाधिकारियों की आरक्षण के संबंध में छुटपुट टिप्पणियां देखने को मिल रही हंै, जो सही दिषा में नहीं होकर अनावष्यक भ्रम पैदा कर रही हंै। कोई आरक्षण का श्रेय लेने में लगा है तो कोई सरकार को इस बात के लिये कोस रहा है कि उसने न्यायालय में सही पक्ष नहीं रखा जबकि यह सत्य नहीं है। मैंने स्वयं विगत 20 वर्षों से अनेक सामाजिक संगठनों के साथ ओबीसी हित में कार्य किया है। सितम्बर 2017 में गठित ‘म.प्र. पिछड़ा वर्ग संयुक्त संघर्ष मोर्चा‘ का मैं मुख्य संयोजक भी हूँ। मेरा सभी सामाजिक संगठनों से अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत श्रेय लेने के बजाय कांग्रेस सरकार द्वारा बढ़ाये गये आरक्षण को लागू रहने की दिषा में गंभीरता एवं लगन से कार्य करेें। व्यक्तिगत श्रेय लेने से कुछ नहीं होने वाला है। सभी सामाजिक संगठनों को मिलकर केन्द्र में ऐसी सरकार के गठन का प्रयास करना चाहिये जिससे म.प्र. में दिये गये 27 फीसदी आरक्षण को स्थाई बनने में मदद मिल सके। इन संगठनों को भाजपा की आरक्षण विरोधी नीति से भी तत्काल जनता को अवगत कराना चाहिये।
आजाद सिंह डबास (अध्यक्ष, सिस्टम परिवर्तन अभियान)
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