पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए कहा – भगवान शिव करुणा, शुभता और ज्ञान के अवतार हैं। वह चिरस्थायी आनंद और दिव्य अमृत का स्रोत हैं। आत्म-जागरण का महापर्व शिवरात्रि सभी के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो। भगवान आशुतोष, विश्वनाथ वो मंगलप्रदाता महाकाल स्वरूप भगवान महामृत्युंजय समस्त प्राणि समूह का मंगल करें ..!भगवान शिव के नाम का उच्चारण करने से ही दु:खों का निवारण हो जाता है। शिव के अनेक नाम और रूप हैं। वो आशुतोष हैं, महादेव हैं, नटराज हैं, महाकाल हैं और भक्तों के साधन चतुष्ट्य की सिद्धि के लिए वही भूतभावन भगवान शिव मृत्युजंय बनकर हरिहर आश्रम, हरिद्वार में विद्यमान हैं l भगवान शिव सृष्टि के प्रकट देव हैं, जो सूक्ष्म आराधना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। महाशिवरात्रि सनातन धर्म का बड़ा पर्व है। उत्सव उच्चता के प्रसव को कहते हैं, इस दिन प्रकृति पूरे आनंद में होती है, देवता भी प्रसन्न रहते हैं। ऐसे समय में मानव को उदारता के साथ आचार-व्यवहार करना चाहिए। हर कण में ईश्वर के दर्शन करने चाहिए, तभी उत्सव का मंगल आशीर्वाद प्राप्त होता है। भारतवर्ष में जितने भी पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं, उनका मूल उद्देश्य है – मनुष्य में देवत्व का उदय होना है। प्रत्येक पर्व कोई न कोई देवी-देवता से जुड़ा हुआ है। उनके पूजन का अर्थ है – उनके आदर्शों को जीवन में धारण करना। तभी मनुष्य एक दिन नर से नारायण बन सकता है। उसी दिन सार्थक होता है – पर्व उत्सव। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण पर्व है – महाशिवरात्रि, देवाधिदेव महादेव जिसके पूजित देवता हैं। महाशिवरात्रि का व्रत मानव को शिव बनने की प्रेरणा देता है। यह संपूर्ण सृष्टि को शिवत्व का संदेश सुनाता है। शिव का अर्थ है – शुभ, मंगल। शंकर अर्थात्, कल्याण करने वाला। इस प्रकार आदर्शों के अनुरूप आचरण करने वाला ही शिवत्व को प्राप्त कर सकता है, इसमें संदेह नहीं …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ‘शिव’ का अर्थ है – कल्याणकारी ! जिन्होंने संसार के हित में कालकूट विष का पान कर लिया हो। इस समष्टि में उनके जैसा उदार व परमार्थी भला और कौन होगा? शिव के शरीर पर राख है, वो जटाजूटधारी हैं, गले में सर्प एवं नरमूंडों की माला है और भूत-प्रेत, पिशाच आदि भी इनके गण हैं। अर्थात्, संसार में जिनका सबने तिरस्कार कर दिया हो, भगवान शिव ने उन सबकॊ अपनाया और गले लगाया है। ये आशुतोष, औघड़दानी सभी के लिए सुलभ हैं, सुगम हैं और सरल हैं l देव हों या असुर सभी को सहज ही करुणा भाव से इच्छित वरदान प्रदान करते हैं। शिव के एक हाथ में त्रिशूल और दूसरा हाथ में डमरू है। त्रिशूल संहार का प्रतीक है। सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करना इसका काम है। डमरू ज्ञान का उद्गाता है। सृष्टि के कितने ही रहस्यों का उद्घाटन भगवान ने डमरू बजाकर किया है। शास्त्रों में कहा गया है – “शिवोभूत्वा शिवं यजेत् …’’ अर्थात्, शिव बनकर ही शिव की उपासना की जाती है, जिसमें कल्याणकारी भावना हो और दूसरों का कल्याण करने के लिए मन में ललक जगे, उसी का शिवरात्रि व्रत सार्थक है। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को जिन्होंने भी पीया वे देव, लेकिन विश्व कल्याण के निमित विषपान करने वाले महादेव। यही महादेव ही विश्व के संरक्षक व जगत पिता हो सकते हैं। जिनके मन में प्राणी मात्र व सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा की चिंता हो, लेकिन क्या कभी हमारे मन में पिता के गुणों की समीक्षा करते हुए उनको जीवन में धारण करने की उमंग जगी? हमने तो केवल पत्र-पुष्प ही चढ़ाया। जो हमारे पूज्य हैं, वही हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए, इस बारे में हमने सोचा ही कब? आज समय की पुकार यह है कि इस पर्व को मनाने का नया दृष्टिकोण देना होगा। शिवरात्रि का व्रत करते हुए जीवन में शिवत्व को धारण करने की प्रेरणा जगानी होगी। जीवन को सत्यम, शिवम, सुंदरम के रूप में ढालना होगा। जो सत्य नहीं, वह शिवम कैसे हो सकता है और जो शिवम नहीं, वह सुंदरम तो हो ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है केवल प्रदर्शन मात्र है। संकीर्णता, ईर्ष्या-द्वेष, मिथ्या से भरे अंतःकरण में शिव का अवतरण कैसे हो? अतः चित्र के नहीं चरित्र के उपासक बनें, क्योंकि जब चरित्र का आधार शुभ होगा तभी उसमें ज्ञान शोभायमान हो पायेगा …।
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