पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
🌿 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जीवन सिद्धि के अनेक उपक्रमों में सत्संग-स्वध्याय और ज्ञानार्जन ही श्रेष्ठ उपक्रम हैं। विद्या और विवेक द्वारा ही मनुष्य को जीवन का यथार्थ बोध एवं इहलौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं का सृजन होता है ..! ईश्वर के प्रति विनम्रता, पवित्रता, निस्वार्थ कर्म और बिना शर्त समर्पण सफल जीवन की कुंजी है। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी से कहते हैं कि जितना शीघ्र मैं सत्संग से मिलता हूं उतना शीघ्र मैं स्वाध्याय, तपस्या, यज्ञ और दक्षिणा देने से नहीं मिलता। सत्संग से हमारे भीतर की नकारात्मकता समाप्त होती है, जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण पैदा होता है और हम विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी मुस्कुराहट को कायम रख सकते हैं। जीवन में साधना, सेवा, सत्संग को जितना अधिक स्थान देंगे, उतनी ही ज्यादा खुशियां अनुभव करेंगे। मानव जीवन बड़े भाग्य से मिला है। इसे व्यर्थ में न गवांए। अतः गृहस्थ आश्रम का पालन करते हुए उस परमपिता का स्मरण भी करते रहिए। कलियुग में सबसे बड़ा पुण्य है – सत्कर्म; जो सत्संग से प्राप्त होता है। इसे अपने जीवन चरित्र में धारण कर मानव ईश्वर को आसानी से प्राप्त कर सकता है। विपरीत से विपरीत परिस्थिति भी आये तब भी धर्म को न छोड़ें, झूठ मत बोलें, बेईमानी से बचें, ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार को पास मत आने दें। आप देखेंगे कि आपका स्वत: ही कल्याण हो जायेगा …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – कुसंग से बचने के लिए सत्संग करना चाहिए। सत्संग से ही मन में जमे हुए मैल, शंका आदि दूर होते हैं और व्यक्ति ज्ञान अर्जित कर अपने बुद्धि से सफलता की ओर अग्रसित होते हैं। ईश्वर की प्राप्ति उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक मनुष्य पापों और कुकर्मों से विरक्त नहीं होता। पाप और दोष की धूल को धोने के उपाय गीता में वर्णन किए गए हैं। गीता के अठारहवें अध्याय में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण जी का उपदेश है कि “भगवान को अपना सहारा समझ कर सब प्रकार से भगवान के अधीन हो जाना, भगवान का भक्त बनना है। भगवान के प्रत्येक विधान में सदा संतुष्ट रहना। उनकी आज्ञा का पालन करना। भगवान का भक्त किसी से ईर्ष्या, द्वेष, वैर और हिंसा भाव नहीं रखता। केवल कर्तव्य बुद्धि से भगवान की पूजा समझ कर कर्म करता है। भगवान के भक्त की दूसरी पहचान यह है कि वह सबका मित्र हो, वह कभी पक्षपात में ना पड़े। जीवन में न्याय के अनुसार चले। भगवान के भक्त की तीसरी पहचान उसका करुणा भाव है। दीन, हीन, दु:खी, पीड़ित व्यक्ति को देख कर हृदय पसीज जाना करुणा है”।  ईर्ष्या, द्वेष एवं वैर बुद्धि वाला व्यक्ति भगवान का भक्त नहीं बन सकता। निराश व्यक्ति केवल ईर्ष्या-द्वेष की भावनायें ही फैला सकता है। ईर्ष्या-द्वेष में जलकर मनुष्य अपना ही नुकसान करता है। अतः ईर्ष्या-द्वेष से रहित जीवन जी कर देखें कि जीवन का आनन्द कैसा है। संत-सत्पुरुषों का संग मानव को आध्यात्मिक व मानवीय मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। पूज्य “आचार्यश्री” जी भक्तों को भक्ति भरा जीवन जीने को कहते हैं। सत्संग में आने से मनुष्य में ईर्ष्या, नफरत, क्रोध, दुश्मनी, हिंसा जैसी बुराइयों का अंत होता है और नम्रता, सत्कार व प्यार जैसे गुणों का संचार होता है। श्रीमद्भागवत कथा व सत्संग कलियुग में अमृत तुल्य हैं। अतः मन लगाकर इसे सुनने एवं अपने आचरण में इसे उतारने से जीवन की सभी बाधाएं स्वतः ही मिटती जाती हैं …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” ने कहा -आध्यात्मिक प्रक्रिया, जीवन में एक उत्साह की तरह होती है। उत्साह से बड़ी और कोई शक्ति नहीं एवं आलस्य से बड़ी कोई कमजोरी भी नहीं है। सच में, आलस्य हमारे जीवन में ऐसे कोने में छिपा होता है, ऐसे छद्म वेश में होता है, जिसे हम पहचान नहीं पाते, इसे ढूँढ़ नहीं पाते और भगा नहीं पाते; जबकि उससे ज्यादा घातक हमारे लिए और कोई वृत्ति नहीं होती। जीवन में सफल वे ही हुए हैं जिन्होंने जीवन को हरपल नये उत्साह के साथ जीया है। धन्य वे ही हैं जिनके जीवन में आलस्य के लिए कोई स्थान नहीं है। निराश व्यक्ति केवल ईर्ष्या-द्वेष की भावनायें ही फैला सकता है। किन्तु, उत्साही पुरुषों को किसी से कोई शिकायत नहीं होती। वे अपना पथ स्वयं निर्धारित करते हैं और अपने उत्साह बल से उसे पूरा करके दिखा देते हैं। जीवन एक साहसपूर्ण अभियान है। उसका वास्तविक आनन्द संघर्षों में है। निराशा और कुछ नहीं, मृत्यु है। पर, लगन और उत्साह से तो मृत्यु को भी जीत लिया जाता है। इस जीवन में भी निराश हो कर जीना कायरता नहीं तो और क्या है? परमात्मा ने हमें इसलिए जन्म नहीं दिया है कि हम पग-पग पर विवशताओं के आँसू बहाते फिरें। हमें सिंह पुरुषों की तरह जीना चाहिए, उत्साह पूर्वक जीना चाहिए। अतः इस महामंत्र को अच्छी प्रकार सीख लें तो आपको धन की झींक, साधनों का अभाव अथवा यह कुछ भी आपको परेशान करने वाले नहीं है। बस, आपके हृदय में “उत्साह का बल” होना चाहिये। यदि यह उत्साह का बल आप पा गये तो इस जीवन में आपको सुख ही सुख रहेगा और आप सदैव प्रसन्नता में आत्म-विभोर बने रहेंगे …।

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