पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अति संग्रह-संचय, भंडारण और लोभ-भोग वृत्तियां ही समष्टि में असंतुलन का मूल कारण हैं। संयमपूर्वक प्राकृतिक और नैसर्गिक जीवन जीकर पर्यावर्णीय अनुकूलताओं का सृजन किया जा सकता है। अतः प्राकृतिक जीवन के अभ्यासी बनें ..! सनातन-वैदिक संस्कृति स्वाभाविक एवं नैसर्गिक जीवन धारा है जहाँ आत्मोन्नयन और लोकोपकार के साथ-साथ समरसता समन्वय, सहअस्तित्व एवं “वसुधैव कुटुम्बकम् …” के भाव निहित हैं। पारस्परिक एकत्व की दिव्य संवेदनाओं को सहेजने वाली संस्कृति के उपासक होने पर गौरवान्वित हैं। “भारत की संस्कृति ऋषि और कृषि आधारित है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति, संवेदनाएं, सकल संस्कार और भारत का जीवन ऋषि-कृषि पर आधारित है। जैसे ही हम ऋषियों की बात करते हैं तो एक बड़ी वैज्ञानिक जीवन पद्धति आकर खड़ी होती है और वो है – प्राकृतिक, नैसर्गिक, निर्दोष जीवन शैली। ऐसी जीवनशैली जो मानव मात्र के लिए है। वह किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म-पंथ तक सीमित नहीं है। यहाँ जो भी जैव समूह हैं, प्राणी समूह के लिए ही कल्याण का चिंतन रहा है। “सर्वे भवन्तु सुखिनः …” सबके सुख का चिंतन। “लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु …” समस्त लोकों का जीवन सुखी हो। ऋषि-कृषि आधारित संस्कृति का आधार त्याग है, अतः जिनके जो हिस्से हों वे निकाले जाएँ। दसवाँ हिस्सा न केवल धन का, जीवन की आयु का भी दसवाँ हिस्सा त्याग के लिए हो।
“त्येन् त्यक्तेन भुंझिथा मा गृधा कस्व सिद्धनम् …”। दूरदृष्टा तो होना पर गिद्ध जैसी दृष्टि न हो। हविष्यान्न, यज्ञान्न हो। सूर्य को अर्घ्य दीजिये। अतिथि, गौ, काक, श्वान का भोजन निकालिए। “ऋषियों के जीवन जीने का ढंग त्याग पूर्वक, ज्ञान पूर्वक, विचार पूर्वक, विनय पूर्वक और प्रेम पूर्वक रहा है। जीवन में द्वेष, वैमनस्य, कटुता क्यों? हमें अच्छा दिखने से अधिक अच्छा बनने का प्रयास करना है। सच्चा बनना है”। जीवन में सत्यनिष्ठ रहो। यह सब त्याग से ही संभव है। सीमाएं हैं, मात्राएँ हैं और मर्यादायें हैं, तभी त्याग है। सारी प्रकृति भगवान की है, छीना झपटी मत करें। संसार को भोगो, लेकिन त्याग पूर्वक। जल नारायण है, एक-एक बून्द अमूल्य है। अग्नि, वायु, आकाश नारायण है। कोई दोष प्रणाली आएगी, इसीलिए ऋषियों ने कहा – “ॐ द्यौ: शांति:…”। नदियों के बहते रहने का धर्म मत छीनो। नदियों की अविरलता, अविछिन्नता नष्ट मत करो। विज्ञान का भूत इतना नहीं चढ़ना चाहिए कि विज्ञान जीवन को अप्राकृतिक बना दे। अतःनदियों का प्रवाहमानता नष्ट न करें, सच्चे बनें …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वैदिक-संस्कृति ही सत्य, सनातन है, क्योंकि मनुष्य और उसकी सभ्यता के बारे में सबसे प्राचीन इतिहास भी इसी संस्कृति की देन है। जिसमें ऋषियों द्वारा मानव समाज को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिये मर्यादित आचरण की व्यवस्था दी गयी है। जबकि आज के युग में मर्यादा का सर्वथा अभाव है। आज हम जिस युग में साँस ले रहे हैं; वह संघर्ष, स्वार्थ, छल, प्रतिस्पर्धा तथा किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाये रखने का युग है। नैतिकता का निरन्तर ह्रास हो रहा है। साथ ही मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं की भी कोई कीमत नहीं रह गयी है। हम सभी भौतिकता के कीचड़ में इस प्रकार से ओत-प्रोत हैं कि, आँख उठाकर देखने, सोचने और समझने का समय ही नहीं है। क्षणमात्र के लिए यदि हम इसका चिन्तन करें कि यह क्या हो रहा है? हम किस तरफ बढ़ रहे हैं? क्या हमारे जीवन का यही लक्ष्य है? और, क्या हमारे जीवन की पूर्णता इसी में है? तो वर्तमान की सारी समस्याओं के समाधान के सूत्र हमारी संस्कृति में समाये हुए हैं। यही कारण है कि कालान्तर से आज तक वैदिक-संस्कृति ने अपने अस्तित्व को बनाये रखा है, जो आश्चर्यजनक परन्तु अटल सत्य भी है। यदि विश्वभर में इस महान संस्कृति को अपनाया जाये, तो ये सभी को पावन प्रेरणा देती है – “सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया …“ अर्थात्, सभी सुखी रहें और सभी निरोग हों। इतने व्यापक स्तर पर सर्वप्रथम ऐसी कामना, जिसमें मानव-कल्याण निहित हो हमें केवल वैदिक सनातन संस्कृति ही बताती है; अन्य कोई संस्कृति नहीं है।
मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता है, इसलिए धर्मशास्त्रों की रचना मनुष्य के लिए की गई। सारे विधि-निषेध नियम मनुष्य के लिए बनाए गए। न तो ये पशु-पक्षियों आदि के लिए हैं, और न ही देवताओं के लिए। मनुष्य जीवन की सार्थकता विषय भोगों में लिप्त रहना नहीं है, क्योंकि इस संदर्भ में अन्य योनियों की अपेक्षा मनुष्य अत्यंत निर्बल है। चाहें तो अलग-अलग तुलना करके देख सकते हैं। धर्मशास्त्रों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की चर्चा की गई है। पहले तीन को उन्होंने पुरुषार्थ कहा है, जबकि मोक्ष को पर-पुरुषार्थ। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम ये तीन उपलब्धियां हैं – मनुष्य जीवन की। जबकि मोक्ष परम उपलब्धि है। धर्मशास्त्र इस विवेचन द्वारा यह स्पष्ट करते हैं कि यदि ‘मोक्ष’ की उपलब्धि नहीं हुई, तो तीनों की कोई सार्थकता नहीं है। पूज्य “आचार्यश्री” जी के प्रवचनों में इसी यथार्थ को तरह-तरह से समझने का सुअवसर प्राप्त होता है, उनका एक-एक शब्द सम्पूर्ण व्यक्तित्व को गहराई तक छूता है। पूज्य “आचार्यश्री” जी की प्रांजल भाषा का संपूर्ण रूप से स्पर्श करना दुष्कर कार्य है, लेकिन फिर भी साधकों के जनहित के लिए उन्हीं की परम कृपा से समय-समय पर उसे शब्दों में बांधने की और सुगमरूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। पूज्य “आचार्यश्री” जी के अनुसार – शरीर को सजाना-संवारना व्यवहारिक दृष्टि से यह मात्र आत्म प्रवंचना है, स्वयं को धोखा देना है। अपने जीवन में शरीर के बदलाव संकेत देते हैं कि मनुष्य को अपने व्यक्तित्व (चरित्र) को संवारना चाहिए। इसी से लोक-परलोक संवरते हैं, क्योंकि आत्मिक विकास ही सच्चे अर्थों में स्वयं को संवारना है। उन्होंने श्रवण के साथ मनन व निदिध्यासन पर भी जोर दिया है। उनका परामर्श है कि श्रेय मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए जिस तरह संकल्प की आवश्यकता होती, उसे मात्र सत्संग, स्वाध्याय, सेवा और ईश्वर चिंतन से ही प्राप्त किया जा सकता है। अतः आप सबके जीवन में श्रेय का मार्ग प्रशस्त हो, यही पूज्य “आचार्यश्री” जी की हम सबके लिए शुभकामनाएं हैं …।
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