पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – माँ के प्रेम, करुणा-वात्सल्य आदि दिव्य भावों से अभिसिञ्चित मातृभाषा हमारी निजता और आत्मगौरव की अभिव्यक्ति है। यह माँ की भाँति ही आदरणीय और उत्कर्ष-प्रदात्री है। अतः अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव रखें। मातृभाषा के बिना मौलिक विचारों की सृजना सम्भव नहीं। जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषायी पहचान है तथा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना से उत्प्रेरित करती है। सच तो यह है कि मातृभाषा आत्मा की आवाज है। इसलिए संत-सत्पुरुष देश की एकता के लिए यह आवश्यक मानते है कि अंग्रेजी का प्रभुत्व शीघ्र समाप्त होना चाहिए। भाषा अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है, अत: किसी विदेशी भाषा को जानने का विरोध नहीं होना चाहिए, लेकिन स्वभाषा पर स्वाभिमान रखना भी आवश्यक है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मातृभाषा हमारी आत्मसत्ता निजता, स्वाभाविकता और सांस्कृतिक चेतना का वाक रूपांतरण है। मानवीय संस्कृति-संस्कार और व्यवहार की सहज, सरल और प्रभावी अभिव्यक्ति मातृभाषा द्वारा ही संभव है। मातृभाषा का अर्थ आत्माभिव्यक्ति से है। ऐसी भाषा जिसमें स्वयं की संस्कृति, संस्कार और व्यवहार को सही अर्थों में अभिव्यक्त किया जा सके। हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र की अभिव्यक्ति है। मातृभाषा सीखने, समझने एवं ज्ञान की प्राप्ति के लिए सरल व सहज भाषा है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. अब्दुल कलाम जी का मानना था कि मैं वैज्ञानिक इसलिए बन पाया क्योंकि मैंने प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी तथा गणित व विज्ञान की शिक्षा भी मातृभाषा में ही ली थी। महात्मा गांधी भी विदेशी भाषा में शिक्षा के माध्यम को बच्चों पर बोझ डालने का कार्य मानते थे तथा कहा करते थे कि मातृभाषा यदि शिक्षा का माध्यम नहीं होगी तो बच्चे रटने के लिए विवश हो जाएंगे जिससे उनमें सृजनात्मकता समाप्त हो जाएगी …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारी मातृभाषा हिन्दी भाषा विश्वस्तर पर सनातन वैदिक संस्कृति की सहज-सरल, सरस-समर्थ एवं दिव्य अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। यह भाषा सम्पूर्ण प्रणियों के हृदय को आकर्षित करती है। मातृभाषा व्यक्तित्व निर्माण का सशक्त साधन है। बच्चे का मानसिक विकास एवं व्यक्तित्व निर्माण उन विचारों पर निर्भर करता है जो उसे परिवार एवं शिक्षा संस्थान से प्राप्त हुए हैं। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में संसार की सभी वस्तुओं, क्रियाओं व घटनाओं को समझने का आधार मातृभाषा ही है यानी वह भाषा जो उसके परिवार में बोली जाती है जिसे मां बोली भी कहते हैं। भारत के संविधान में शिक्षा संघ व राज्य सूची का विषय है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 345 में प्रावधान है कि देश में सभी शासकीय कार्यों के लिए हिन्दी या राज्यों की भाषाओं का प्रयोग होना चाहिए। संविधान की 8वीं सूची में अंग्रेजी का कहीं स्थान नहीं है, फिर भी कार्यालयों में कामकाज अंग्रेजी में प्रमुखता से होता है तथा कई विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी है। अंग्रेजी की चाहत में कहीं हम अपनी भाषाओं से अनभिज्ञ रहते हुए अपनी बहुमूल्य संपदा को नष्ट तो नहीं कर रहे हैं ..?
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मातृभाषा मात्र संवाद ही नहीं अपितु संस्कृति और संस्कारों की संवाहिका है। भाषा और संस्कृति केवल भावनात्मक विषय नहीं, अपितु देश की शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विकास से जुड़ा है। मातृभाषा के द्वारा ही मनुष्य ज्ञान को आत्मसात करता है, नवीन सृष्टि का सृजन करता है तथा मेधा, पौरूष और ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास करता है। किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा और उसकी संस्कृति से होती है। विचारों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति तो मूलतः मातृभाषा में ही होती है। मातृभाषा सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना की पूर्ति का महत्वपूर्ण घटक है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट का मानना है कि अधिकांश बच्चे स्कूल जाने से इसलिए कतराते हैं क्योंकि उनकी शिक्षा का माध्यम वह नहीं है, जो भाषा घर में बोली जाती है। बाल अधिकार घोषणा पत्र में कहा गया है कि बच्चे को उसी भाषा में शिक्षा दी जाए, जिस भाषा में उसके माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन व परिवार के सदस्य बातें करते हैं। भाषा भावनाओं और संवेदनाओं को मूर्तरूप दिए जाने का माध्यम है न कि प्रतिष्ठा का प्रतीक। विश्व के अन्य देशों में मातृभाषा की क्या स्थिति है? इसका वैचारिक और व्यवहारिक विश्लेषण करते हैं तब ज्ञात होता है कि विविध राष्ट्रों की समृद्धि और स्वाभिमान की जड़ें मातृभाषा से सिंचित हो रही हैं …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – राष्ट्र की क्षमता और राष्ट्र के वैभव के निर्माण में मातृभाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। आयातीत भाषाएं न तो राष्ट्र के वैभव की समृद्धि करती हैं और न ही राष्ट्रत्व-भाव को जागृत करती हैं। संस्कार, साहित्य- संस्कृति, सोच, समन्वय, शिक्षा, सभ्यता का निर्माण, विकास और उसका वैशिष्ट मातृभाषा में ही संभव है। मातृभाषा के प्रति समर्पण और अनुराग-भाव की दृष्टि से विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि आज विश्व के अधिकांश देशों का इतिहास और प्रमाण यह दर्शाता है कि ये देश अलग-अलग कालखण्डों में औपनिवेशिक शक्तियों के गुलाम रहे हैं, परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने अपनी-अपनी मातृभाषाओं को स्थापित किया। श्रीलंका, ब्राजील, मैक्सिको, चिली, कोलम्बिया, क्यूबा, जापान, चीन, इण्डोनेशिया, म्यांमार, मलेशिया आदि ने अपनी मातृभाषा को अपनाकर ही विकास के मार्ग प्रशस्त किए हैं। सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी, वैज्ञानिक एवं अन्य समसामयिक ज्ञान का विस्तार मातृभाषा में ही किया। चीन और जापान तो ऐसे अनुकरणीय उदाहरण हैं, जिन्होंने मातृभाषा के माध्यम से विकास कर वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित हुए हैं। इस यथार्थ को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि 1949 तक भूखमरी की प्रताड़ना भोग रहा चीन आज विश्व की प्रमाणिक अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हुआ है तो इसका श्रेय चीन की मातृभाषा में ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन और शोध कार्यों को जाता है …।
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