पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – विशुद्ध अन्त:करण से की गई प्रार्थनाएँ शान्ति प्रदात्रि एवं आनंद साम्राज्य द्वार की कुंजियां हैं ..! भगवान भक्तवत्सल, परमकृपालु, करूणानिधान और सर्वसामर्थ्यवान हैं। आर्तभाव से की गई प्रार्थना द्वारा वो भक्तों पर शीघ्र ही द्रवित हो जाते हैं। प्रार्थना का अर्थ है – असत्य से सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयत्न। प्रार्थना की सामर्थ्य अपार है, यही एकमात्र ऐसा साधन है कि जब उपासक ईष्ट को साकार कर लेता है। “ईश्वर: विद्यते भावे, भावो हि कारणम् …” अर्थात्, ईश्वर मनुष्य के मन के भाव में रहता है, ये भाव ही उस तक पहुँचने का कारण हैं, माध्यम हैं। इसलिए अपने मन में उसे पाने की उत्कट भावना रखते हुए उसका स्मरण करना चाहिए। इस प्रकार प्रार्थना का मनोवैज्ञानिक महत्व भी कम नहीं है। मन को शांत करने, बुद्धि को एकाग्र करने, संस्कारों को श्रेष्ठ बनाने और आत्मविश्वास प्राप्त करने का यह एक अनुपम साधन है। यह एक ऐसी आध्यात्मिक क्रिया है जिसमें धैर्य, ऊर्जा, पवित्रता, चरित्र की दृढ़ता जैसे गुण विद्यमान हैं। इसके द्वारा दूसरों का भी बड़ा भला किया जा सकता है। प्रार्थना के बल पर साधु-संतों, पीर-पैगम्बरों आदि ने वह सब कुछ कर दिखाया है जो असंभव लगता है। अतः प्रार्थना ही श्रेयस्कर है। प्रार्थना जब प्रार्थी के विह्वल अंतःकरण से निकलती है, तो वह पूरी हुए बिना नहीं रहती। प्रार्थना करना लिखे हुए कुछ शब्दों को दोहराना भर नहीं है। प्रार्थना का अर्थ होता है – परमात्मा का मनन और उसका अनुभव। प्रार्थना का एक अर्थ यह भी है – परम की कामना। परम की कामना के लिए क्षुद्र और तुच्छ कामनाओं का परित्याग करना चाहिए। परम की चाह ही ‘प्रार्थना’ है। लेकिन हम परम की नहीं, अल्प की मांग करते हैं। सांसारिक मान, पद व प्रतिष्ठा की चाह प्रार्थना नहीं, अपितु वासना है। धन, यश व पुत्र – इन तीनों की मूल कामना का नाम ‘ऐषणा’ है। इसे ही ऋषियों ने पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा कहा है। जब तक इन क्षणिक सुख देने वाली तृष्णाओं का अंत नहीं हो जाता है, तब तक परम-प्रार्थना का आरंभ नहीं हो सकता है। प्रभु से प्रार्थना करने के लिए हाथ नहीं, बल्कि हृदय फैलाने की आवश्यकता है। लघुता को विशालता में व तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम ही प्रार्थना है। नर को नारायण एवं पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने की संकल्पना है – प्रार्थना …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – प्रार्थना हमें अपने आंतरिक आत्मा के साथ संबंध स्थापित करने में मदद करती है। हृदय से की गई प्रार्थनाएं हमारे विचारों, भावनाओं और कार्यों को शुद्ध करती हैं। प्रार्थना आनंद और शांति की एक उत्कृष्ट भावना प्रदान करती हैं। सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूर्ण समर्पण के साथ की जाए। प्रार्थना अर्थात्, आत्मा की आवाज परमात्मा तक पहुंचाने की संदेशवाहक है। प्रार्थना आत्म शुद्धि का आवाहन है। प्रार्थना मानवीय प्रयत्नों में ईश्वरतत्व का सुन्दर समन्वय है। प्रार्थना आत्मविश्वास का पहला पायदान है। प्रार्थना से बड़ा बल, विश्वास, प्रेरणा, आशा और सही मार्गदर्शन मिलता है। जब हम प्रार्थना करते हैं तो अपने अहम का दमन करते हैं। प्रार्थना करने से हमारे मन से कलुषित विचार दूर होते जाता है। प्रार्थना हमें मनुष्यता सिखाती है। प्रार्थना पश्चाताप का चिह्न व प्रतीक है। यह हमें अच्छा और पवित्र बनने के लिये प्रेरणा देती है। प्रार्थना धर्म का सार है। प्रार्थना याचना नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार है। प्रार्थना हमारी दुर्बलताओं की स्वीकृति नहीं, प्रार्थना हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान है। प्रार्थना में परमेश्वर की प्रशंसा, स्तुति, गुणगान, धन्यवाद, सहायता की कामना, मार्गदर्शन की इच्छा, दूसरों का हित चिंतन आदि होते हैं। प्रार्थना नम्रता की पुकार है। प्रार्थना आत्मशुध्दि व आत्म-निरीक्षण का आह्वान है। प्रार्थना विश्वास की आवाज या प्रतिफल है। प्रार्थना हमें संगठित करती है। प्रार्थना मनुष्य की श्रेष्ठता की प्रतीक है, क्योंकि यह उसके और परमात्मा के घनिष्ठ संबंधों को दर्शाती है। प्रार्थना से आत्म सत्ता में परमात्मा का सूक्ष्म दिव्य तत्व झलकने लगता है। हर एक धर्म में प्रार्थना का बड़ा महत्व है। अतः सभी धर्म-गुरुओं, ग्रंथों और संतों ने प्रार्थना पर बड़ा बल दिया है। उन्होंने प्रार्थना को परम-पद प्राप्ति का व मोक्ष का द्वार कहा है …।
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