पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – परमार्थ की दिशा सर्वथा कल्याणकारी है; अहंशून्यता, सहजता और आनन्दबोध की जननी पारमार्थिक प्रवृत्तियाँ और परहित तत्परता ही है। अतः परमार्थी बनें..! पदार्थ को पाने की दौड़ मृत्यु है; तो परमार्थ को पाने की साधना – मोक्ष। धर्म जीवन का मूल है। धर्म से ही जीवन के सभी साधन सिद्ध होते हैं। परमार्थ का मूल धर्म है। धर्म की शरण में आने से मानव की कमियां दूर होती है। धर्म हमारे वर्तमान को ठीक करता है। मानव जीवन की सार्थकता तभी तक है जब तक वह कुछ न कुछ परमार्थ और परोपकार के कार्य करता है। परोपकार भाव सच्चे मनुष्य का लक्षण है। यों तो संसार में स्वार्थी, कृपण और संकीर्ण व्यक्ति भी जीते और रहते हैं, पर उनका जीवन मानवीय नहीं होता। केवल स्वार्थ के साथ अपने लिए ही जीना अथवा सब कुछ करते रहना पशु-प्रवृत्ति का जीवन है, जो मनुष्य के लिए लज्जा की बात है। स्वार्थी मनुष्य का जीवन महत्त्वहीन तथा निःसार ही माना जायेगा। मनुष्य प्रकृति के माध्यम से परमात्मा की ओर से न जाने कितना और क्या-क्या पाते रहता है। अतः मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह प्रकृति अथवा परमात्मा की कृपा के प्रति इसका आभार प्रकट करे। उसका सुन्दर-सा उपाय यही है कि उसके उपकार का प्रत्युपकार हम सेवा धर्म अपनाकर उसकी सृष्टि को दें अर्थात् संसार के दुःखी, पीड़ित और आवश्यकताग्रस्त प्राणियों का कुछ न कुछ हितसाधन अवश्य करें…।
Related Posts
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि संसार के सभी धर्मों और विद्वानों ने एक स्वर में परोपकार की महत्ता स्वीकार की है। “परोपकार के लिए हम जितना अपने को जुटाते हैं, उतना ही हमारा हृदय भरता जाता है।” परोपकार-पुण्य से मनुष्य की चेतना न केवल विकसित ही होती है बल्कि ऊर्ध्वमुखी भी होती है। उसका हृदय विकसित, विशाल और महान हो जाता है। उसे अपने में एक पूर्णता का अनुभव होने लगता है। किसी का संकट घटा देने, आवश्यकता के समय सहायता करने, रोगी की सेवा करने अथवा भूखे को भोजन करा देने से जो उस व्यक्ति की आत्मा को शाँति और सन्तोष प्राप्त होता है, उसी का प्रतिफल परोपकारी के अन्तःकरण को प्रभावित कर उसकी आत्मा को भी प्रभावित कर असीम तृप्ति का समावेश करता है। परोपकार से उत्पन्न सन्तोष की तुलना स्वार्थजन्य सुख से कदापि नहीं की जा सकती। जीवन में सत्य और उच्चकोटि के सुख को पाने के लिए परोपकार धर्म का पालन करना निताँत आवश्यक है। मनुष्य अपनी ही सुख-सुविधा और वृद्धि-समृद्धि की ही बात न सोचता रहे, वरन् उसे दूसरों को भी सुखी तथा संकटरहित बनाने का भी प्रयत्न करते रहना चाहिये। अतः परोपकार को परम धर्म ही नहीं अपितु, परम पुण्य भी समझना चाहिये…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परोपकार एवं परमार्थ से न केवल व्यक्ति का ही मंगल होता है बल्कि उससे समाज और संसार का भी कल्याण होता है। सहायता, सौहार्द एवं सहानुभूति के आधार पर जिन व्यक्तियों का कष्ट दूर किया जायेगा अथवा संकट में जिनका हाथ बटाया जायेगा, उनमें भावनापूर्ण मानवता की चेतना विकसित होगी। वे स्वयं भी दूसरों की सहायता और सहयोग के महत्व को समझने लगेंगे। उनकी आत्मा का विकास होगा, अन्तःकरण में दैवीय भावना का जागरण होगा जिससे वे स्वयं भी तन-मन-धन या किसी भी रूप से, यथासाध्य परोपकार तथा परहित में प्रवृत्त होने लगेंगे। यदि मानव-समाज को जीवित रखना है तो उसके सदस्यों के बीच परस्पर सेवा, सहयोग, दया, सहानुभूति आदि की परोपकारी प्रवृत्तियाँ चलती ही रहनी चाहिये। हमें परोपकार को जीवन का एक अनिवार्य व्रत समझकर ग्रहण कर लेना चाहिये और यह भ्रम हृदय से निकाल देना चाहिये कि परोपकार का आधार धन ही है अथवा समाज के लिए कोई बहुत बड़ा त्याग करना है। परोपकार वास्तव में एक आध्यात्मिक भावना है जिसे कभी भी, किसी भी परिस्थिति में अथवा किसी भी यथासाध्य सत्कर्म द्वारा मूर्तिमान किया जा सकता है। अतः इस शुभ कर्म को सब कर सकते हैं और सबको करना ही चाहिये…।
Comments are closed.