पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
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पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जीव-समूह के सभी प्राणी, नक्षत्र, ग्रह, तारामंडल, चंद्र, सूर्य, नदी और वन-पर्वत एक का ही विस्तार है, अतः सभी के प्रति आदर भावना श्रेष्ठ उपासना है…! केवल मनुष्य में ही नही संसार के सभी प्राणियों में सृष्टि के सभी पदार्थों, सूर्य, चन्द्र एवं पार्थिव जगत में भी एक ही चेतन तत्त्व व्याप्त है। इस विश्व में व्याप्त वही चेतन आत्मा ब्रह्म है। इसके परे और कुछ नहीं। समूची संसार में वही एक सक्रिय तत्त्व है। और, फिर भी वह सबसे शान्त और अचल है। वह प्रकृति की सभी शक्तियों और कण-कण में विद्यमान है। संसार के सारे काम उसकी इच्छा से सम्पादित होते हैं। वही प्राणी मात्र की आत्मा है। जब यह उदात्त दृष्टि प्राप्त हो जाती है तो ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ …’ का स्वर उद्घोषित होता है। भक्त वह है – जो समस्त प्राणियों का हितैषी है, जिसके मन में कभी यह भाव नहीं आता कि यह मेरा और तेरा है। इसी प्रकार जो प्रत्येक प्राणी को सम्मान की दृष्टि से देखता है, किसी को छोटा या बड़ा नहीं समझता, सभी में ईश्वर के प्रकाश का अनुभव करता है, जो किसी से घृणा नहीं करता, ज्ञानी और शांतचित्त है, वही श्रेष्ठ भक्त है। जो मन, वाणी और अपने क्रियाकलापों द्वारा दूसरों को किसी भी प्रकार की पीड़ा अथवा हानि नहीं पहुंचाता, जिसमें संग्रह का स्वभाव नहीं होता, जो सच्ची बात ग्रहण करने के लिए सदैव तैयार रहता है, जिसकी बुद्धि सात्विक गुणों से युक्त है, वही ईश्वर का श्रेष्ठ भक्त है। जो माता-पिता की सेवा करता है, देव अराधना की तल्लीन रहता है, जो गुरुजनों को आदर देता है तथा असहाय, निर्धन और वृद्धजनों की सहायता करता है, वह भक्त ही परमात्मा को सर्वाधिक प्रिय है। जो भक्त ज्ञानियों, संन्यासियों और सेवाभावियों की सेवा करता है और उन्हें आदर देता है, शत्रु और मित्र में भी समभाव रखता है, सर्वत्र गुणों को ग्रहण करता है, कभी भी अच्छे व्यवहार या किसी शुभ कार्य की न तो आलोचना करता है और न ही उसमें कोई व्यवधान उत्पन्न करता है, वही उत्तम भक्त है। सद्गुणी होना जिस व्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, जो इस लोक में विनम्रता के साथ सेवा कार्य करता है, जो जीवों पर दया करता है, उत्तम कार्यों में सहयोगी बनता है, जो सदा शुभ का ही चिंतन करता है, उस भक्त की चिंता भगवान स्वयं करते हैं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि जो मन और बुद्धि से परे अगम, अगोचर है। वह मन के विचार तथा बुद्धि की कल्पनाओं की अवधारणा नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है। यह साधनामय जीवन का अनुभव है, जो सृष्टि के कण-कण में, पौधों एवं प्राणियों में लहराता-उफनता व दृष्टिगोचर होता है। आवश्यकता है तो मात्र उस दृष्टि की जो जगत में इसकी लीला को देख सके तथा अपने अन्तर में विद्यमान उस परम पुरुष परमात्मा को झाँक सके। समस्त जप, तप, साधना, स्वाध्याय और सेवा का मूल भी यही है कि हम स्वयं को परिष्कृत एवं परिमार्जित करें तथा उसके दिव्य स्वरूप का अनुभव प्राप्त करें। पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि कण-कण में समाई हुई है प्रभु प्यारे की सत्ता। “प्रभु प्यारे से जिसका संबंध है, उसे हर पल आनंद ही आनंद है…”। अन्तःकरण की पवित्रता और दुर्गुणों को त्यागने से होती है आनंद की अनुभूति। जब असह्य दुष्प्रवृत्तियों से हृदय का भार हल्का हो जाता है तो प्रभु का प्रकाश बिखरने लगता है। यह ज्योतिर्मय प्रकाश सद्गुणों के रूप में ज्योतित होता है। हृदय में सद्गुणों के बढ़ने से ही उसके दिव्यत्व का अनुभव होता है, क्योंकि ईश्वर सद्गुणों का समुच्चय है, श्रेष्ठ आदर्शों का समन्वय है। फिर हृदय के गुहा में परमात्मा का सतत अनुभव होने लगता है। और, ‘तत्त्वमसि …’ जो तुम हो वह मैं हूँ, ‘अहं ब्रह्मास्मि …’ मैं ही ब्रह्म हूँ का अलौकिक अनुभव होने लगता है। इस अव्यक्त अनुभव के होते ही अथवा उस परम चेतना का दिव्य दर्शन करते ही दृष्टि व्यापक हो जाती है एवं देखने का नजरिया बदल जाता है। फिर वह सृष्टि के कण-कण में और समस्त जड़-चेतन में एकमात्र वही दिखाई देता है और ब्रह्ममय सृष्टि का बोध हो जाता है। इसी विराट् अनुभवबोध को प्राप्त कर उपनिषद् का ऋषि कह उठा था – यही ब्रह्म है। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा कि हर व्यक्ति, हर जीव परमात्मा है, ऐसा समझकर उसकी सेवा करें। और, जब यह सेवा हमारे जीवन में आराधना बन जाएगी तो अहंकार स्वयं ही विगलित हो जाएगा। अतः अहंकार को गलाने के लिए निष्काम सेवाभाव एकमात्र उपाय है…।
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