पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शुभ-संकल्प की प्रचण्डता समुद्र की आँधी को ईधन, प्रतिकूलता को प्रसाद और घोर विषमताओं में सहज साधन प्रदात्री है। अतः मन शुभ संकल्पित रहें…! शिव संकल्प सूक्त हमारे मन में शुभ व पवित्र विचारों की स्थापना हेतु एक आवाहन है। शिवसंकल्पसूक्त का संबंध भी “मन” से है। भारतीय वाङ्गमय में मन एवं उसके निग्रह पर मनीषियों ने बहुत कुछ कहा है। मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ज्योतिस्वरूप है। वैदिक ऋषियों ने मनुष्य के ह्रदय-गुहा में स्थित इस ज्योति को देखा व पहचाना है। ईश्वर से की गई अपनी प्रार्थनाओं में वैदिक ऋषि कहते हैं कि वह उन्हें शारीरिक तथा वाचिक ही नहीं अपितु मानसिक पापों से भी दूर रखें। हमारा मन जो संकल्प करे वह अशुभ को छोड़ने का और शुभ को जीवन से जोड़ने का होना चाहिए। संकल्प के लिए हमारी प्राथमिकताएँ निश्चित होनी चाहिए। हम शिव संकल्प ही करें। अशिव या अकल्याणकारी संकल्प शुद्ध मन की परिधि में नहीं आता।दिनभर की दिनचर्या का अवसान होने पर हम जब नींद की गोद में जाते हैं, उस समय संकल्प की पड़ताल हज़ारों वर्षों से की गई है। यजुर्वेद में कहा गया है कि मनुष्य के मन में उठने वाले संकल्प सदैव शुभ व श्रेयस्कर हों। मनुष्य का मन अपूर्व क्षमतावान् है। उसमें जो संकल्प जाग जाएं, उनसे उसे विमुख करना बहुत कठिन कार्य है। इसीलिए भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों एवं सन्त परम्परा मन को शुभ व श्रेष्ठ संकल्पों से युक्त रखने की प्रार्थना करते हैं…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सद्गुण हमारे जीवन में चक्रवृद्धि ब्याज की तरह आते हैं। जब हम एक अच्छा गुण अपनाते हैं तो उसके साथ अन्य गुण अपने आप आ जाते हैं। कमजोरियां सफलता में बाधक ना बनें, उन्हें प्रभु को अर्पण कर दें। भगवान स्वयं कहते हैं – तुम मेरी ओर एक कदम बढ़ाओ मैं हजार कदम बढ़ाऊंगा। कोई भी व्यक्ति एक दिन में महान नहीं बन जाता। इसके लिए कठिन तपस्या करनी होती है। प्रतिदिन सुबह उठते ही एक शुभ संकल्प लें और उसे पूरे दिन पालन करने की कोशिश करें। इससे आपके अंदर सकारात्मकता बढ़ेगी और कार्य करने की क्षमता में भी वृद्धि होगी। जब हम आलस्य पर विजय प्राप्त कर लेंगे, तभी उन्नति हमारे चरण चूमेगी। अथर्ववेद में कहा गया है – ‘कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहित …’ अर्थात्, मेरे दाएँ हाथ में कर्म (पुरुषार्थ) है और मेरे बाएँ हाथ में विजय विद्यमान है। सुस्त और निद्राशील लोगों को तो देवता भी पसंद नहीं करते क्योंकि देवता हमारी आस्था का जाग्रत रूप है। समय पर काम न करने वाले, व्यर्थ के विवादों में शक्ति और समय का अपव्यय करने वाले, न संकल्प कर सकते हैं और न ही अपने किसी वचन का निर्वाह कर सकते हैं। इसलिए हमारी सबसे पहली आवश्यकता है – शक्ति का सदुपयोग। और, वह तभी संभव है जब हमारे मन में सब तरफ़ से श्रेष्ठ संकल्प ही आएँ…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि जितना बड़ा वृक्ष होगा उसके बीज के अंकुरित होने की यात्रा भी उतनी ही लम्बी होगी। ठीक उसी प्रकार जीवन के शुभ संकल्प जितने श्रेष्ठ होंगे उनको साकार रूप लेने में उतना ही समय लगेगा। शुभ संकल्प रुपी बीज ऐसे ही फलित नहीं हो जायेंगे, बल्कि उन्हें परिश्रम रुपी जल से नित सिंचित करना पड़ेगा, संकल्प रुपी खाद डालनी पड़ेंगी, कुसंग रुपी कीड़ों बचाना होगा और झंझावत रुपी घोर निराशा से इसकी रक्षा करनी होगी। उसके बाद आपके सामने बीज नहीं अपितु एक विशाल वृक्ष होगा, जिसकी शीतल छाया तले अनेकों लोग विश्राम व मधुर फलों से तृप्ति पा रहे होंगे। और, आपको मिल रहा होगा एक परम धन्यता का अनुभव एवं जीवन की सार्थकता का आनन्द। लंका में प्रवेश करते समय जब भगवान राम वानरों से चर्चा कर रहे थे तो उन्होंने एक शुभ-संकल्प लिया। श्रीतुलसीदास जी ने लिखा है – ‘करिहउ इहां संभु थापना। मोरे हृदय परम कलपना’ …। अर्थात्, मैं यहां शिवलिंग की स्थापना करूंगा। यह मेरे हृदय की महान कल्पना है। शिवलिंग मतलब सभी का कल्याण। यहां प्रभु श्रीराम यही सिखा रहे हैं कि बड़ा काम करना हो तो शुभ संकल्प अवश्य लीजिए, क्योंकि आप तो सफल होंगे ही, साथ ही दूसरों का भी कल्याण कर सके
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