पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
???? पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आशावादिता, अप्रमत्तता सकारात्मकता और  व्यवहार में शुचिता जीवन जागृति और सिद्धि की सहज दिशा है…! मनुष्य वह प्राणी है जो अपने विचारों से बना होता है। कोई भी विचार सबसे पहले मन में आकृति ग्रहण करता है। इसके बाद ही वास्तविकता में परिवर्तित होता है। इस प्रकार कर्म की उत्पत्ति हमारी सोच, हमारे चिंतन, हमारे संकल्पों का परिणाम मात्र है। यह हमारे विचारों अथवा संकल्पों की तीव्रता तथा हमारे विश्वास की सीमा पर निर्भर है कि हमारे विचार कब कर्म फल के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। सोच का सकारात्मक या नकारात्मक होना हमारे  परिवेश, शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों पर निर्भर करता है। सकारात्मक सोच से उत्पन्न कर्म हमारी भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति में भी सहायक होते हैं, जबकि नकारात्मकता से उत्पन्न कर्म हर दृष्टि से हमें पीछे की ओर ले जाते हैं। सकारात्मक या नकारात्मक सोच द्वारा अपने सुख-दु:ख का सामान जुटाने वाले हम स्वयं ही हैं, अन्य कोई नहीं। जीवन के संघर्ष में व्यक्ति के हारने का कारण नकारात्मक सोच और कुसंगति है। शुभ, सकारात्मक और पारमार्थिक विचार ही आनन्द, ऊर्जा और उन्नयन के भवतारण के स्रोत हैं….।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवान ने सृष्टि की रचना करके मनुष्य को अपने जन्म को सार्थक करने का एक अवसर दिया है। और, ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलता। कई पुण्यकर्मों के उदय के बाद जब ईश्वर की अनन्य कृपा होती है तभी मनुष्य जीवन प्राप्त होता है। हमें उसे सार्थक करने के लिए अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए। सुंदर वही है, जो पूर्ण है, शाश्वत है। जिसका सौंदर्य कभी खंडित नहीं होता, जिसका आकर्षण कभी मंद या कुंद नहीं होता, वही सुंदर होता है। भगवान को आत्मीय भाव पसंद है न की शरीर की सजावट। ईश्वर की पूजा व दर्शन के लिए तो मन हरि के भावों से सजा होना चाहिए। कपड़े भले ही पुराने हो लेकिन मन अगर हरि के रंग से रंगा होता है तो पूजा सार्थक होती है। मन की पवित्रता ही प्रभु के साक्षात्कार का साधन है। प्रार्थना का बीज पवित्रता की ही भूमि पर अच्छी तरह अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होता है। उसी में अच्छे फल लगते है, उसी से मनुष्य को प्रार्थना का आनन्द मिलता है…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य जीवन को मधुर बनाएं। इसके लिए जीवन व्यवहार में बदलाव की आवश्यकता है। पवित्रता हमारे जीवन की महान संपत्ति है, इसे सुरक्षित रखें। संत वाणी जीवन में सहृदयता, सरलता, मृदता एवं मैत्री भावना का विकास करती है। अर्थ की अधिकता के कारण इस धरती पर कभी किसी का सम्मान नहीं हुआ। आदर लेने के लिए अंतःकरण को आध्यात्मिक बनाना होगा। भारत वह देश है जिसने दशमलव एवं शून्य का ज्ञान तथा प्रतिशत का प्रबोध विश्व को दिया है। विश्व को भारत ने ही आहार शुद्धि का ज्ञान दिया है। आहार से ही हमारे विचार सकारात्मक और स्वाभाविक होते हैं। आहार को यदि प्रसाद बनाना है तो पहले उसे भगवान को समर्पित करना चाहिए। भंडार में रखी वस्तु पदार्थ है लेकिन भगवान को भोग लगने के बाद वह प्रसाद बन जाती है। धर्म और ध्यान के साथ दान-पुण्य जरूतमंदों की सेवा की जाए तो वह व्यक्ति अपने जीवन में संस्कारों के चलते कठोर मार्ग को भी आसान बना सकता है। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा कि मनुष्य को हमेशा अहम एवं घमंड का त्याग कर सरल और संस्कारवान जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए, ताकि प्रभु का प्रेम और आशीर्वाद निरंतर मिलता रहे। भगवान श्रीराम का चरित्र काफी उदार है। श्रीराम के चरित्र में पुरुषार्थ, प्रेम, ममता, समता और एकता के सूत्र दिखाई देते हैं। जिसने भी स्वयं को श्रीराम से जोड़ा है, उसने हनुमान की तरह अद्भुत कार्य किए हैं। वैष्णवजन वही है जो दूसरों की पीड़ा दूर करे…।

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