गांधी जयंती : 2 अक्टूबर के खास दिन एक तरफ संपूर्ण देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को याद करते हुए उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने में व्यस्त था तो वहीं दूसरी तरफ आंदोलनरत् किसान अपनी मांगों को लेकर उत्तर प्रदेश से दिल्ली की तरफ कूच कर रहे थे।
मांगें नहीं माने जाने से दु:खी और आक्रोषित किसान सड़कों पर उतरे तो खुद व खुद बापू की याद आ गई। दरअसल शांति और सद्भाव के साथ अन्याय के खिलाफ सदा लड़ाई लड़ने वाले बापू ने कहा था कि जो सरकार जनता का दर्द नहीं समझ सकती उसे राज करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
अहिंसात्मक रवैया अपनाते हुए मिल बैठकर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान खोजने का पाठ पढ़ाने वाले गांधी की जयंती पर आखिर देश के अन्नदाताओं ने जो आंदोलन किया उससे मन आहत होता चला गया। दरअसल हरिद्वार से बड़ी संख्या में किसानों की क्रांति यात्रा दिल्ली की तरफ बढ़ी तो लगा कि कहीं कुछ अशोभनीय घटित हो रहा है,
क्योंकि चिंता के साथ ही साथ सवाल यह था कि अन्नदाताओं ने अपनी मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन करने गांधी जयंती के दिन को ही क्यों चुना और दूसरा यह कि शासन-प्रशासन ने आखिर इस दिन के महत्व को देखते हुए किसानों को ऐसा करने से पहले ही बातचीत के रास्ते खोलने और उन्हें किसी भी तरह आंदोलन नहीं करने को क्यों नहीं मनाया।
कहने को तो किसानों के प्रतिनिधियों से उत्तर प्रदेश सरकार ने बातचीत की, लेकिन हल नहीं निकला और हालात यहां तक पहुंच गए। शर्मनाक तो यह भी है कि जहां अहिंसा के पुजारी को याद करने के लिए विश्व अहिंसा दिवस का आयोजन किया जा रहा था तो वहीं शासन-प्रशासन की अनदेखी से नाखुश किसान सड़कों पर इस तरह उतर रहे थे मानों उनकी सुनने वाला ही कोई नहीं है।
यही नहीं इन आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली की सीमा में घुसने से रोकने के लिए दिल्ली-यूपी बॉर्डर को सील कर दिया गया और भारी पुलिस बल की तैनाती कर दी गई, मानों सरकार और प्रशासन अपराधियों से सामना करने जा रहा है। यहां किसान और पुलिस में तीखी झड़प हुई।
आगे बढ़ने की कोशिश करते किसानों को रोकने के लिए पुलिस ने पहले पानी की बौछारें छोड़ीं उसके बाद आंसू गैस के गोले भी दागे गए और लाठियां भी भांजी गईं। अब यह तो सभी जानते हैं कि जहां कोई वर्ग संगठित होगा वहां राजनीति भी जरुर ही होगी, इसलिए अन्नदाताओं के आंदोलन को लेकर जहां चर्चाओं का बाजार गर्म हुआ वहीं राजनीतिक बयानवाजियां भी सामने आने लगीं।
एक तरफ उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार ने किसानों से किए वादे पूरे नहीं किए इसलिए वो आंदोलन करने को मजबूर हैं। वहीं भारतीय किसान यूनियन अध्यक्ष नरेश टिकैत कहते देखे गए कि उन्हें दिल्ली में प्रवेश से क्यों रोका जा रहा? बकौल टिकैत, ‘हम अपनी बात सरकार से नहीं बताएंगे तो कौन बताएगा? क्या हम पाकिस्तान या बांग्लादेश चले जाएं?
‘ यहां दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी अवसर नहीं गंवाया और किसानों का समर्थन करते हुए जब यह कहा कि ‘उन्हें दिल्ली में दाखिल होने क्यों नहीं दिया जा रहा? यह गलत है।’ तब भी राजनीति की ही बू आ रही थी, दरअसल शासन-प्रशासन जानता है कि अचानक यदि हजारों लोग शहरों की सड़कों पर निकल आते हैं तो पूरा तंत्र जाम हो जाता है, फिर चाहे वह कितना ही शांतिप्रिय ढंग से सड़क पर क्यों न चल रहे हों।
ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार कतई नहीं चाहेगी कि इतनी बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की सड़कों पर उतरें, इसलिए दिल्ली की सीमा पर ही उन्हें रोके रखने की हर संभव कोशिश पुलिस प्रशासन ने की। इस कोशिश में बल प्रयोग भी हुआ जिसे लेकर कांग्रेस ने किसानों के समर्थन में आक्रामक रुख अख्तियार करते हुए कहा कि इस सरकार का दमनात्मक रवैया अंग्रेजी शासन की याद ताजा करा रहा है।
कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने तो यहां तक कह दिया कि महात्मा गांधी की जयंती पर मोदी सरकार ने दिखला दिया कि यह सरकार आजादी से पहले वाली ब्रिटिश सरकार से किसी मामले में कम नहीं है। एक वो समय था जबकि अंग्रेजी सरकार किसानों का उत्पीड़न करती थी वहीं आज की यह मोदी सरकार है जो किसानों पर आंसू गैस के गोले दाग रही है।
किसानों के प्रभावी आंदोलन को आरएलडी अध्यक्ष अजित सिंह ने भी समर्थन दिया। कुल मिलाकर वाजिब मांगों के साथ सड़कों पर उतरे किसानों के नाम पर राजनीति होनी थी सो खूब हुई और आगे भी होती रहेगी। जहां तक किसानों की मांगों का सवाल है तो वो पुरानी ही हैं, जिसमें प्रमुख रुप से फसल की सही कीमत मिले, कर्ज से किसानों को पूरी तरह छुटकारा दिलवाया जाए, किसानों द्वारा की जाने वाली खुदकुशियों को रोकने के प्रभावी कदम उठाए जाएं,
जिन किसानों ने खुदकुशी की है उनके परिवारों का पुनर्वास किया जाए और मृतक किसान के परिजन को नौकरी दी जाए। इसी तरह की और भी मांगें हैं, लेकिन प्रमुखतौर पर कर्जमाफी ने तूल पकड़ा हुआ है, क्योंकि मोदी सरकार शुरु से इस मांग को नहीं मानने की बात कहती रही है।
अब यदि ऐसे में किसानों की मांगें मान ली जाती हैं तो उसे आधार बनाकर अन्य राज्यों के किसान भी प्रभावी आंदोलन करने को मजबूर हो जाएंगे। इसलिए केंद्र सरकार को अब जो फैसला लेना होगा वह देश के सभी राज्यों में लागू होने वाला ही लेना होगा।
इसके बगैर सरकार का रवैया आमतौर पर किसान हितैषी कम और राजनीति साधने वाला ज्यादा रहा है, आमचुनाव से पहले इसे झुठलाने की भी कोशिश की जा सकती है और इस किसान आंदोलन को उसका आधार बना लिया जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
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