पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव’ जी ने कहा – आंतरिक जीवन ही महानता का सच्चा मार्गदर्शक है। शांत हो जाएं। मौन में सत्य प्रकाशित होता है। अपने आपको स्थिर करें, अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनें वही ईश्वर की आवाज है..! ईश्वर को जो किसी विषय या वस्तु की भांति खोजते हैं, वो ना-समझ हैं। वह वस्तु नही है। वह तो आलोक, आनंद और आत्मा की चरम अनुभूति का नाम है। वह व्यक्ति भी नहीं है कि उसे कहीं बाहर पाया जा सके। वह तो स्वयं की चेतना का ही आध्यात्मिक परिष्कार है। संसार में प्राकृतिक शक्तियों का खेल हो रहा है। पृथ्वी, चंद्र आदि ग्रहों की गति खेल या नृत्य के समान है। वस्तुतः मनुष्य जन्म लेकर अभिनय करने के लिए इस संसार रूपी रंगमंच पर आता है और मृत्यु के साथ अभिनय पूरा हो जाता है। अतः उस साक्षी चैतन्य की अनुभूति हो जाने पर जीवन का नाटक सार्थक हो जाता है…।
एक फकीर से किसी ने पूछा – ईश्वर है तो दिखाई क्यों नही देते? उस फकीर ने कहा – ईश्वर कोई वस्तु नही है वह तो अनुभूति है उसे देखने का कोई उपाय नही है। हां, अनुभव करने का अवश्य है। किंतु, वह जिज्ञासु संतुष्ट नही दिखाई दिया। उसकी आँखों में प्रश्न वैसा का वैसा ही खड़ा था। तब फकीर ने पास में पड़ा एक पत्थर उठाया और अपने पैर पर पटक लिया। उनके पैर को गहरी चोट पहुंची और उससे रक्त की धार बहने लगी। वह व्यक्ति बोला, यह अपने क्या किया? इससे तो बहुत पीड़ा होगी? यह कैसा पागलपन है? वह फकीर हंसने लगा और बोला – पीड़ा दिखती नही फिर भी है। प्रेम दिखता नही फिर भी है। ठीक ऐसे ही ईश्वर भी है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जीवन में जो दिखाई पड़ता है, मात्र उसकी ही नही, बल्कि उसकी भी सत्ता है जो दिखाई नही पड़ता है। और, दृश्य से अदृश्य की सत्ता बहुत गहरी है, क्योंकि उसे अनुभव करने को स्वयं के प्राणों की गहराई में उतारना आवश्यक होता है। तभी वह ग्रहणशीलता उपलब्ध होती है। तभी उसका आविष्कार होता है। और, तभी ज्ञात होता है कि वह बाहर नही है, उसे देखा जा सकता है, क्योंकि वह तो भीतर है, वह तो देखने वाले में ही छिपा है। ईश्वर को खोजना नही खोदना होता है। स्वयं में ही जो खोदते चले जाते है, वे अंततः उसे अपनी सत्ता के मूल स्तोत्र और चरम विकास की भांति अनुभव करते हैं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अंग्रेजी में एक कविता है कि तितली को बगीचे में अगर पकड़ने के लिए दौड़ो तो वह हाथ नहीं आती। परंतु, यदि आप चुपचाप बैठ जाओ या घूमते रहो तो वह स्वयं ही आकर कंधे पर बैठ जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति मोक्ष या ईश्वर को ध्येय बनाकर पाने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें मोक्ष कभी नहीं मिलता, वे व्यर्थ ही साधना का बोझ ढोते हैं। जिस साधना पद्धति से आपको प्रेम है, जिसे करने में खुशी होती है, वह साधना ही आपको ईश्वर तक पहुंचा सकती है। ध्यान ईश्वर प्राप्ति में नहीं, बल्कि साधना से प्राप्त होने वाली खुशी में ही होना चाहिए, वही गहराई में जाकर मोक्ष का आनंद बनती है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वह व्यक्ति जिसका आंतरिक जीवन नहीं है, अपनी परिस्थितियों का गुलाम है। आंतरिक जीवन की समृद्धि अंत:करण के द्वारा ही संभव है। वास्तविक जीवन बाह्य नहीं आंतरिक होता है। जिसका अंतत: जितना स्वच्छ, पवित्र, परोपकारी, प्रेमपूर्ण तथा प्रसन्न होगा, उसका जीवन उतना ही उत्कृष्ट माना जाएगा। इसके विपरीत जिसका अंत: मलिन, स्वार्थी, छली तथा असंतुष्ट होगा, यहां तक कि उसके पास क्यूं न कुबेर का भंडार हो और क्यूं न वह इन्द्र जैसा भोग-विलास से पूर्ण विभ्रामक जीवन जी रहा हो, फिर भी वह पशुवत ही समझा जाएगा। अतः जीवन की उत्कृष्टता का मूल्यांकन बाहर से नहीं बल्कि अंदर से किया जाता है…।
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