पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – सत्कर्म, शुभ-संकल्प, विनय, जितेंद्रियता और आत्म-विश्वास सफलता के मूल मन्त्र हैं ..! सज्जनों की संगति से हृदय के विचार पवित्र होते हैं। सत्संगति करने से स्वार्थ भाव त्यागकर मनुष्य परमार्थ के लिए जीवन जीता है व जन-कल्याणकारी कार्य करता है। आज प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है और सुख प्राप्त करने के बाद भी आत्मसंतुष्टि नहीं होती। आज मनुष्य की कामना सुख प्राप्त करने की नहीं, जीवन जीने की है और शास्त्र भी इसका उल्लेख करते हैं। शास्त्रों में यह भी निहित है कि मनुष्य जीवन चाहता है, सुख चाहता है और इन दोनों के साथ-साथ सम्मान भी पाना चाहता है। मनुष्य को आज स्वयं का भी ज्ञान नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस दिन मनुष्य को अपना ज्ञान हो जाएगा तो उसका जीवन भी सफल हो जाएगा। गीता शास्त्र का स्वरुप है और अध्यात्म की तरफ ले जाने का एक मार्ग है। यह यथार्थ का बोध करवाता है और सत्य का ग्रंथ है। अध्यात्म का पहला सुख वर्तमान है तथा वर्तमान जीवन का मूल है। पवित्र ग्रंथ गीता किसी को प्रतिस्पर्धा करना नहीं सिखाता, यह ग्रंथ सिखाता है कि मनुष्य को स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए और इस स्पर्धा में स्वयं को ही जीतने का प्रयास करना चाहिए। गीता के पन्द्रहवें अध्याय में शास्त्र का उल्लेख किया गया है, शास्त्र मनुष्य को जीने की कला सिखाता है …।
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