पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – साधन द्वारा वास्तविक स्वरूप का बोध कर अपनी अखण्ड सत्ता का अनुभव किया जा सकता है, जहाँ नित्य-आनन्द, अखण्ड-रस, परम-शान्ति और वैभव विद्यमान है…! साधना का सीधा संबंध आध्यात्मिकता से है। कर्मकाण्ड एवम् अनुष्ठान की स्थूल प्रवृत्तियों से मुक्त होकर जब व्यक्ति किसी साधना में लगता है तो उसकी संकुचित दृष्टि विस्तारित होने लगती है। साधना से तात्पर्य उन विधियों से है, उन साधनों से है, जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मा का अनुसंधान करता है, अपने मूल स्वरूप की खोज करता है। साधना में ध्यान को सभी धर्मों ने आत्मानुभूति का एक सशक्त माध्यम माना है। जीव परमात्मा का अंश है, उसे अपने आत्म स्वरूप को पहचान कर आत्म गौरव के अनुरूप नीति से जीवित रहना चाहिये। गीता में भगवान कहते हैं कि शरीर, इन्द्रियां, मन और बुद्धि से जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं वे सब मैं ही हूँ, मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि हमें सात्त्विक, राजस और तामस भावों के भोग को त्याग कर नित्य स्वरुप भगवान का आश्रय लेना चाहिए। अगर हम भक्ति भाव पूर्वक अपने सभी गुण और अवगुण परमात्मा को उसके ही मान कर उसे ही समर्पित कर दे तो हमें अखंड आनंद की प्राप्ति हो जायगी। जिस आनंद में खण्ड नहीं है, वही अखंड है। आकाश और नाद सूर्य और रश्मि की तरह अभिन्न-अविच्छेद है। … भजन-भक्ति अखंड आनंद की प्राप्ति का साधन भी है। अखंड आनंद सिर्फ और सिर्फ भगवान की भक्ति में ही मिलता है। कर्मयोगी को आनंद, ज्ञानयोगी को परमानन्द तथा भक्तियोगी को अखंड-आनंद की प्राप्ति होती है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि “आनंद” आध्यात्म की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जो व्यक्ति इसे प्राप्त कर लेता है, उसकी अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से काफी उच्च मानी जाती है। यों तो बहिरंग की प्रफुल्लता सर्वसामान्य में भी देखी जाती है, परन्तु वह भौतिकता से जुड़ी होने के कारण अस्थिर होती और घटती-बढ़ती रहती है। लेकिन “आनंद” आत्मिक होने के कारण चिरस्थायी होता और समस्वर बना रहता है। आमतौर पर आनंद ओर उत्फुल्लता को एक माना जाता है, किंतु दोनों में जमीन-आसमान जितना अंतर है। जो भेद सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश के मध्य है, लगभग वैसा ही अन्तर इन दोनों के बीच माना जाना चाहिए। बाह्य वस्तुओं में हमें जहाँ-जहाँ, जब-जब सुख की अनुभूति होती है, वह वस्तुतः हमारे अंतस् के आनंद का ही प्रकाश है, क्योंकि बाहरी उपादानों में सुख कभी होता नहीं। जो होता है, वह मात्र दुःख है। यदि भौतिक पदार्थ आनंद के स्रोत रहे होते, तो जिस चीज से एक को प्रसन्नता मिलती है, दूसरे के लिए भी वह उत्फुल्लतादायक ही होनी चाहिए थी, पर दैनिक जीवन में जो अनुभव होते हैं, वह इसके ठीक विपरीत है। देखा जाता है कि जो सामग्री हमारे जीवन में सुख और शाँति लाती है, दूसरे के लिए वही महान दुःख का कारण बन जाती है। जड़ पदार्थ यदि सचमुच ही प्रसन्नता के उद्गम होते, तो किसी के लिए भी वे विपन्नता के निमित्त नहीं बनते। यदि बनते हैं, तो निश्चय ही समझने में कोई भूल हुई है। इस भूल को समझकर और सुधारकर ही हम उस चिरंतन आनंद को प्राप्त कर सकते हैं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – इसके लिए उपाय यही है कि हम उपलब्ध साधनों में संतुष्ट रहना सीखें। धीरे-धीरे संतोष को बढ़ाएं उसे साधन-संपदा से न जोड़ें। तब एक दिन उस अवस्था में पहुँच सकते है, जिसको ‘सहजानंद’ कहा गया हैं। और, यह अध्यात्म की उच्चतम स्थिति है। फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम साधनहीन हैं या साधनसंपन्न। सच तो यह है कि उक्त मनोदशा का भौतिकता से कोई संबंध नहीं। इसके विपरीत यदि हम साधन-सुविधाओं से सुख-संतोष को जुड़ा मानें, तो उसके दुःख भी हमारे साथ संलग्न होते चले जाएंगे। जो कि बहुत ही कष्टकारक होगा। इसलिए विवेकवान लोग सुख की सुविधाओं से नहीं संयुक्त करते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह पंचभौतिक जगत् नश्वर है। जो संसार नश्वर है और जहाँ की समस्त वस्तुएं नाशवान हैं, उनसे प्राप्ति सुख शाश्वत कैसे हो सकता है? अतएव तत्ववक्ताओं ने प्रेम की वस्तु परमात्मा को बतलाया हैं और हमारी आत्मा भी उसी की अंशधर है। आत्मपरिष्कार द्वारा आत्मा और परमात्मा को उपलब्ध करना एवं उनका मिलन करना अध्यात्म का उद्देश्य है। सर्वोच्च शाँति और परमानंद उसी अवस्था में प्राप्त किया जा सकता है। इसी निमित्त हम सबका प्रयत्न होना चाहिए। जीवन की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं। इसे जिसने जैसे देखा, वैसा ही पाया। सृष्टि-निर्माण के पीछे दृष्टि महत्त्वपूर्ण होती है। जीवन को परम उपलब्धि मानते हैं -भारतीय ऋषि। वे जन्म से लेकर मृत्यु के बीच के अंतराल को ऐसा साधन बनाने की युक्ति बताते हैं, जिससे कोई भी इन दोनों स्थितियों से पार जा सकता है। उसके सभी शोक-भय समाप्त हो जाते हैं। जिसके सामने जीवन पारदर्शी दर्पण के सामन है, वही सौभाग्यवान है, क्योंकि उसने वह पा लिया है जिससे जीवन को सही परिभाषा मिलती है। यह निर्दोष जीवन की उपलब्धि है। इसका अनुभव करें और मधुर स्वर से उच्च घोष करें —‘सोऽहम्’ (मैं वही हूं), अहं ब्रह्माऽस्मि (मैं ब्रह्म हूं) …।
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