- वर्ष 1951-52 में पहली बार राज्य की विधान सभा के साथ-साथ लोक सभा के आम चुनाव हुए
- गैर आधिकारिक गणना के आधार पर 2014 लोकसभा चुनाव में तीस हजार करोड़ खर्च किए गए
- अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन लागू करना) का दुरुपयोग
- पिछले 30 वर्षों में एक साल भी ऐसा नहीं रहा है जिसमें राज्य विधानसभा या लोकसभा के चुनाव न हुए हो
- वर्तमान स्थिति में हमारे देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए एक साथ चुनाव सबसे बड़ी राजनीतिक क्रांति होगी।
इंदौर, 29 जून 2018: वन नेशन-वन इलेक्शन का मुद्दा इन दिनों सुर्खियों में है l केंद्र की मोदी सरकार चाहती है कि पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं l ये पहली बार नहीं है जब मोदी सरकार इसे लेकर गंभीर दिख रही है l इससे पहले भी वन नेशन-वन इलेक्शन का विचार चर्चा में रहा है वर्ष 1951-52 में पहली बार राज्य की विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा के आम चुनाव हुए। एक साथ चुनाव की यह प्रक्रिया 1967 तक जारी रही। लेकिन बाद में अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन लागू करना) के दुरुपयोग के कारण, सरकार में बदलाव, दल-बदल कानून से नुकसान, भारत की चुनावी प्रक्रिया एक राष्ट्र एक चुनाव बाधित हो गया और आज भी यह जारी है। स्वतंत्रता के 69 वर्षों में, इसका उपयोग लगभग 127 बार किया गया है, और आश्चर्यजनक है कि 1971-1984 के दौरान 57 बार इसका उपयोग किया गया।
लगातार चुनावों में, बहुत अधिक धन खर्च, सुरक्षा और जनशक्ति बर्बाद होती है। बडा नुकसान देश को भुगतना पड़ता है लाखो हजारो करोड़ चुनाओ में खर्च हो जाते है l इसी बात और मुद्दे को लेकर डॉ. प्रशांत कमलापुरकर डीएनबी (ओप्थाल्मोलॉजी) देवता अस्पताल गुलबर्गा, कर्नाटक शहर शहर जाकर इस बारे में अपना पक्ष रख रहे है और “एक राष्ट्र एक चुनाव” पर सभी को जागरूक कर रहे है l अभी तक वे 15 सेमिनार इस टॉपिक पर कर चुके है और 3 बार इलेक्शन रिफार्म भी कर चुके है l
इस अवसर पर डॉ. प्रशांत कमलापुरकर ने बताया की “चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव के ढेड़ से दो महीने पहले आचार संहिता की अवधि घोषित करता है, जिससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित किया जा सके। दुर्भाग्यवश आचार संहिता का यह मॉडल, केंद्र सरकार पर भी लागू होता है। इसलिए केंद्र सरकार को हर वर्ष चार से पांच महीनों के सुशासन का नुकसान हो जाता है। अलग-अलग समय पर साल में लगभग 5 से 6 राज्यों में चुनाव होते रहते हैं, जो संघ और राज्य सरकार की गतिविधियों एवं विकास कार्यक्रम में बाधक हो जाते हैं। यह नीतियों एवं प्रशासन को निर्बलता और नुकसान की ओर ले जाता है। गैर आधिकारिक तौर पर यह गणना की गई है कि 2014 लोकसभा चुनाव में तीस हजार करोड़ खर्च किए गए।“
आगे डॉ. कमलापुरकर ने बताया- यह अनुमान लगाया गया है कि किसी भी राज्य में प्रत्येक विधानसभा चुनाव में 800 से 1000 करोड़ खर्च होते हैं जो बड़े पैमाने पर हमारे समाज में भ्रष्टाचार का मूल कारण है। हर चुनाव का शांतिपूर्ण तरीके से संचालन करने के लिए, हमें अपनी पैरामिलिट्री फोर्सेस को संबंधित राज्य में तैयार रखना पड़ता है। इस तरह से सुरक्षा प्रणाली में भी समझौता करना पड़ जाता है। बार- बार हो रहे चुनाव हमारे देश को धार्मिक मुद्दों पर अधिक से अधिक विभाजित करते हैं जो अगली पीढ़ी के लिए हानिकारक है।
समीक्षकों का कहना है कि –
केंद्र और राज्य में एक ही समय पर चुनाव होने से राइट टू रिजैक्ट के उपयोग एवं सत्ता में किसी विशेष पार्टी के केंद्रीकरण के जोखिम कम होगा।
वे भी महसूस करते हैं कि क्षेत्रीय दल अपनी औचित्य खो देंगे।
एक राष्ट्र और एक चुनाव के मॉडल को लागू करने के लिए मजबूत समाधान हैं
- किसी भी नो-कॉन्फ़िडेंस मोशन को वैकल्पिक कॉन्फ़िडेंस मोशन द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए।
- स्पष्ट बहुमत (नो पार्टी व्हीप) न होने के मामले में सदन को सीधे नेता, प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री का चयन करना चाहिए।
- उपर्युक्त व्यवस्था के बावजूद, यदि ऐसी कोई स्थिति है जहां विघटन से बचा नहीं जा सकता है एवं पर्याप्त अवधि न होने के कारण राष्ट्रपति या गवर्नर के शासन को लागू किया जाना चाहिए।
- यदि समय भरपूर है, तो नए चुनाव आयोजित किए जाने चाहिए लेकिन सदन की अवधि उसकी मूल अवधि जितनी होगी।
उस विशेष वर्ष में उप-चुनाव आयोजित करने के लिए ढेड़-ढेड़ महीने की दो अवधि तय की जानी चाहिए।
ये सिफारिश स्थिर सरकार देगी और असेंबली के समय से पहले विघटन को रोकेगी।
पिछले 30 वर्षों में एक साल भी ऐसा नहीं रहा है जिसमें राज्य विधानसभा या लोक सभा के चुनाव न हुए हो…. !!
वर्तमान स्थिति में हमारे देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए एक साथ चुनाव सबसे बड़ी राजनीतिक क्रांति होगी।
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