पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – क्षमाशीलता-विनय, परदोष-दर्शन का अभाव, विवेक-वैराग्य के आश्रय में आत्म-विचार और सन्त-सानिध्य कल्याण कपाट खोलने में समर्थ हैं…! क्षमा सभी धर्मों का आधार है। परस्पर विभिन्नताओं के बावजूद सभी धर्मों और संप्रदायों ने क्षमादान को एक मत से स्वीकार किया है। आज सांसारिक परिवेश में जो हिंसा, अशांति, भय, अनीति, दमन, अत्याचार और असुरक्षा दिखाई देती है, उसके मूल में क्षमा का अभाव और पारस्परिक नफरत की भावना है। क्षमा नफरत का निदान है। क्षमादान देना और क्षमा याचना करना दोनों महानता की निशानी हैं। क्षमा देने वाले की भांति क्षमा मांगने वाला भी उतना ही श्रेष्ठ है। अपनी गलती पर क्षमा मांगने से उसके हृदय में विनयशीलता का जो भाव उपजता है, इससे उसका कद पहले की अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है। नीति में क्षमा का स्थान बहुत ऊंचा है। वस्तुत: क्षमा भाव नीति का ही अंग है। ‘क्षमा’ शब्द सहनशीलता तथा अहंकार के त्याग का सूचक है। क्षमा के धरातल पर दो व्यक्तित्व उभरते हैं – एक आप और एक सामने वाला। अहम् के वशीभूत होकर जब हम अपनी गलती नहीं स्वीकारते तो क्षमा के विषय में संकोच करते हैं। यह भी संभव है कि समय-समय पर ग्लानि की अनुभूति हृदय में हो, किंतु अहम् इसको उजागर होने से रोक देता है, इस पीड़ा की प्रतीति हर मनुष्य को होती है। इसी प्रकार सामने वाला भी सोचता होगा कि हम क्षमा मांगें और वह क्षमा कर देगा। यह द्वंद्व निरंतर चलता है और इसका निराकरण क्षमा द्वारा हो जाता है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कथा में एक प्रसंग में बताया कि भारत के महाराष्ट्र प्रदेश में संत एकनाथ नामक एक तपस्वी महात्मा हुए हैं। एक दिन वह नदी से स्नान कर अपने निवास स्थान की ओर लौट रहे थे कि रास्ते में एक बड़े पेड़ से किसी ने उन पर कुल्ला कर दिया। संत एकनाथ ने ऊपर देखा तो पाया कि एक आदमी ने उन पर कुल्ला कर दिया था। वह एक शब्द नहीं बोले, सीधे नदी पर दोबारा गए, फिर स्नान किया। उस पेड़ के नीचे से वह लौटे तो उस आदमी ने फिर उन पर कुल्ला कर दिया। एकनाथ जी बार-बार स्नान कर उस पेड़ के नीचे से गुजरते और वह बार-बार उन पर कुल्ला कर देता। इस तरह से एक बार नहीं दो बार नहीं, संत एकनाथ जी ने 108 बार स्नान किया और उस पेड़ के नीचे से गुजरे, और वह दुष्ट भी अपनी दुष्टता का नमूना पेश करता रहा। एकनाथ जी अपने धैर्य और क्षमा पर अटल रहे। उन्होंने एक बार भी उस व्यक्ति से कुछ नहीं कहा। अंत में वह दुष्ट पसीज गया और महात्मा के चरणों में झुककर बोला – महाराज, मेरी दुष्टता को माफ कर दो। मेरे जैसे पापी के लिए नरक में भी स्थान नहीं है। मैंने आपको परेशान करने के लिए खूब तंग किया, पर आपका धीरज नहीं डिगा। मुझ माफ कर दें। महात्मा एकनाथ ने उसे ढाँढस देते हुए कहा – कोई चिंता की बात नहीं। तुमने मुझ पर मेहरबानी की, आज मुझे 108 बार स्नान करने का तो सौभाग्य मिला। कितना उपकार है तुम्हारा मेरे ऊपर! संत के कथन से वह दुष्ट युवक पानी-पानी हो गया….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – क्षमाशीलता साधना-सिद्धि का राजपथ है, क्षमा धर्म की उद्घोषणा है। जिसने क्षमादान का अभ्यास नहीं किया, उसके लिए धर्म का दरवाजा कभी नहीं खुलता। क्षमा व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। क्षमाशीलता इंसान की इंसानियत को गरिमा और ऊंचाई प्रदान करने का सशक्त माध्यम है। क्षमा के अभाव में मनुष्य असुर बन जाता है। वास्तव में, क्षमाशीलता मनुष्य के आध्यात्मिक शुद्धिकरण की एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे उसकी व्यक्तित्व का निखार होने के साथ-साथ उसकी आत्मा का भी उत्थान होता है। क्षमा, श्रेष्ठ व कुलीन आत्माओं का आभूषण है। जो व्यक्ति जीवन की प्रतिकूल पगडंडियों पर क्षमाशीलता को अपनाते हुए शांत चित्त होकर आगे बढ़ता है, वही अपने गंतव्य पर सफलतापूर्वक ध्वजारोहण करता है…।
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