गौरखालैंड का संकट : संकीर्ण राजनीति का दुष्परिणाम
दुनिया भर में प्राकृतिक सुंदरताके लिए विख्यात और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र दार्जिलिंग आज अराजकता और हिंसा की चपेट में है। इसके लिए जितना दोषी पश्चिम बंगाल की सरकार है उतना ही गोरखालैंड राज्य की मांग कर रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) दल भी। बहरहाल, पश्चिम बंगाल की ममता सरकार राज्य के पहाड़ी इलाकों दार्जिलिंग के स्कूलों में बांग्ला भाषा थोपने की जल्दबाजी नहीं दिखायी होती तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को भी विरोध का मौका हाथ नहीं लगता। बेशक राज्य सरकार को अधिकार है कि वह शिक्षा का पाठ्यक्रम सुनिश्चित करे लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह क्षेत्रीय भावनाओं के साथ खिलवाड़ करे। वह भी तब जब पहाड़ी इलाकों में भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर पहले से ही भावनाएं उफान पर हों। ऐसे संवेदनशील मसले पर निर्णय लेने से पहले उसे सहमतिपूर्ण वातावरण निर्मित करना चाहिए था। अगर वह रायशुमारी की होती तो दार्जिलिंग अराजकता और आग की लपटों की भेंट नहीं चढ़ता।
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के आंदोलनकारियों के प्रति राज्य सरकार की सख्ती का नतीजा है कि 35 साल पुराने गोरखालैंड राज्य की मांग पुन: धधक उठी है। ऐसे में उचित था कि राज्य सरकार गोरखालैंड की मांग को सिरे से खारिज करने के बजाय सहानुभूति से पेश आती लेकिन इस मसले पर सरकार का रवैया दोहरा है। ममता बनर्जी जब सत्ता में आई थीं तभी गोरखालैंड समझौता पास हुआ था। उन्होंने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के तहत आने वाली जनजातियों मसलन राई, तमाम लेपचा तथा शेरपा के लिए अलग-अलग विकास बोर्ड बनाए। राज्य सरकार से आर्थिक मदद सीधे इन बोर्डो को जाने लगा। मगर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को जल्द ही समझ में आ गया कि राज्य सरकार की चाल गोरखालैंड राज्य के आंदोलन की धार को कुंद करने की है। दूसरी ओर इस इलाके में संपन्न हुए निगम चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को भारी सफलता ने भी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के कान खड़े कर दिए। राज्य सरकार द्वारा गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्टेशन और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अधीन रहे नगर निगमों में आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों की जांच ने भी आंदोलन की आग में घी का काम किया। चूंकि इन परिस्थितियों के बीच गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए अपना जनाधार बढ़ाने के लिए एक संवेदनशील मुद्दे की जरूरत थी जिसे पश्चिम बंगाल की सरकार ने उपलब्ध करा दिया। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इसे हथियार बनाकर गोरखालैंड राज्य की मांग को इसलिए धार दे रहा है ताकि उसे खोयी हुई सियासी जमीन वापस मिल सके। दार्जिलिंग शुरू में पश्चिम बंगाल का हिस्सा नहीं था। 1865 में जब अंग्रेजों ने चाय का बागान शुरू किया तो यहां बड़ी संख्या में मजदूर काम करने आए। उस वक्त कोई अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा नहीं थी, लिहाजा ये लोग खुद को गोरखा राजा के अधीन और इस इलाके को अपनी जमीन मानते थे, लेकिन आजादी के बाद भारत ने नेपाल के साथ शांति व दोस्ती के लिए 1950 का समझौता किया और सीमा विभाजन के बाद यह हिस्सा भारत में आ गया। तब से ही यहां अलग राज्य की मांग चल रही है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि बंगाली और गोरखा मूल के लोग सांस्कृतिक व ऐतिहासिक तौर पर एकदूसरे से अलग मानते हैं।
राज्य के जिस हिस्से को लेकर गोरखालैंड बनाने की मांग हो रही है उसका कुल क्षेत्रफल 6,246 किलोमीटर है। इसमें मुख्य रूप से दार्जिलिंग की पहाड़ियों के अलावा उससे लगे सिलिगुड़ी के क्षेत्र मसलन बनारहाट, भक्तिनगर, बिरपारा, चाल्सा, दार्जिलिंग, कालचीनी, कलिम्पोंग, कुमारग्राम, कार्सेग, मदारीहाट, मालबाजार, मिरिक और नागरकाटा शामिल हैं। भारत सरकार को डर है कि गोरखालैंड बनाने की इजाजत दी जाती है तो यह भारत से अलग होकर नेपाल में मिल सकता है। ध्यान देना होगा कि नेपाल और भूटान की सीमा से लगने वाले इन शहरों की बहुसंख्यक आबादी गोरखा है, जो नेपाली भाषा बोलते हैं। यहां के लोगों की संस्कृति, खान-पान व पहनावा बंगाल से भिन्न है। यह भिन्नता ही यहां के लोगों को अलग गोरखालैंड राज्य के लिए प्रेरित कर रही है। तर्क है कि जब भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर देश में राज्यों का बंटवारा हुआ और मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती बोलने वालों के लिए गुजरात राज्य का गठन हुआ तो उसी आधार पर गोरखालैंड राज्य का गठन क्यों नहीं होना चाहिए? इसी तर्क ने पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्सों को मिलाकर गोरखालैंड बनाने की मांग को 1980 के दशक से जीवित रखा है। गोरखालैंड राज्य की मांग की शुरुआत गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता सुभाष घीसिंग ने की थी। उन्होंने 5 अप्रैल 1980 को गोरखालैंड नाम दिया। इसके बाद राज्य सरकार दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल बनाने पर राजी हुई। परिषद के पहले चुनाव में घीसिंग को जीत मिली और वह परिषद के प्रमुख बन गए। उनके लिबरेशन फ्रंट ने तीन बार चुनाव जीता। 2004 में चौथे चुनाव होने थे लेकिन सरका
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र ने चुनाव न कराकर परिषद की कमान घीसिंग को ही सौंप दी। इसके बाद स्थानीय स्तर पर असंतोष उभर आया। 2005 में जब इस इलाके को छठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो घीसिंग ने इस पर मुहर लगा दी जिससे असंतोष और बढ़ गया।
इससे नाराज विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का गठन किया और आज बगावत का झंडा उनके हाथ में है। वे किसी भी कीमत पर गोरखालैंड राज्य निर्माण से कम पर मानने को तैयार नहीं है। हालांकि इस समस्या के निदान के लिए 8 सितंबर, 2008 को भारत सरकार, पश्चिम बंगाल और पहाड़ की राजनीतिक दलों के बीच सहमति के आधार पर 51 पेज का एक ज्ञापन तैयार किया गया। करीब साढ़े तीन साल के बाद राज्य सरकार के साथ इस पर सहमति बनी। इसके बाद अर्धस्वायत्त संगठन बनाया गया। 29 अक्टूबर, 2011 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद ने मिलकर 18 बिंदुओं पर समझौता किया। इसके बाद गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी जीटीए की जगह नई प्रशासकीय संगठन गोरखालैंड एंड आदिवासी टेरिटोरियल एडमिनिस्टेशन बना। जनमुक्ति मोर्चा ने इस क्षेत्र में चुनाव का एलान किया लेकिन बाद में चुनाव का बहिष्कार कर दिया। जब तृणमूल कांग्रेस ने यहां चुनाव न लड़ने का फैसला लिया तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को सभी 45 सीटें मिल गयी। 2013 में एक बार फिर तृणमूल कांग्रेस और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच मतभेद बढ़ गया। 2 जून, 2014 को आंध्र से अलग तेलंगाना राज्य के गठन के बाद हालात बदतर हो गए। आज भी हालात उसी तरह हैं। यह न तो दार्जिलिंग के हित में है और न ही देश के।
रीता सिंह
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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