सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण मामला उचित पीठ के गठन के लिए प्रधान न्यायाधीश के पास भेजा

नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ द्वारा बुधवार को दिए गए एक आदेश से उत्पन्न ‘विचित्र’ स्थिति के मद्देनजर भूमि अधिग्रहण से संबंधित एक मामला गुरुवर को उचित पीठ के गठन के लिए प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया. इस खंडपीठ ने आठ फरवरी के एक फैसले पर एक तरह से रोक लगा दी थी. न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा और न्यायमूर्ति अमिताव राय की पीठ ने टिप्पणी की कि बेहतर होगा यदि यह मामला उचित पीठ के गठन के लिए प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया जाए जो यह देखे कि क्या कल के आदेश के मद्देनजर हम इस मामले में आगे सुनवाई कर सकते हैं या नहीं. तीन न्यायाधीशों की खण्डपीठ ने आठ फरवरी के तीन सदस्यीय पीठ के एक अन्य फैसले का जिक्र करते हुए कहा था कि यदि ‘न्यायिक अनुशासन’ और शुचिता बनाए नहीं रखी गई तो यह संस्था ‘हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.’

गौरतलब है कि बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की बेंच द्वारा तीन जजों की बेंच के ही आदेश को ओवररूल करने पर चिंता जताई थी. बेंच ने इशारा किया कि जमीन अधिग्रहण के इस मामले को संविधान पीठ भेजा जाएगा. सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच ने देश के सभी हाईकोर्ट से आग्रह किया है कि फिलहाल वो जमीन अधिग्रहण मामले में उचित मुआवजे को लेकर कोई भी फैसला ना सुनाए.

सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की बेंच के सामने लगे मामलों की सुनवाई भी टालने को कहा गया है. जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस कूरियन जोसफ और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने कहा कि वो आठ फरवरी के जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस ए के गोयल और जस्टिस एम एम शांतनागौदर की बेंच के फैसले से सहमत नहीं हैं. जस्टिस कूरियन जोसफ ने कहा कि बेंच जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच के फैसले की योग्यता पर नहीं जा रही. हमारी चिंता न्यायिक अनुशासन को लेकर है. जब एक बार तीन जजों की बेंच ने कोई फैसला दिया तो उसे सही करने के लिए चीफ जस्टिस से बडी बेंच बनाने का आग्रह किया जा सकता है. ‘इस महान संस्था ( सुप्रीम कोर्ट) के सिद्धांत से अलग नहीं जा सकते. अगर कोई फैसला गलत है तो उसे ठीक करने के लिए बडी बेंच बनाई जाती है और इस अभ्यास में वर्षों से पालन किया जाता है.

अगर सुप्रीम कोर्ट एक है तो इसे एक बनाया भी जाना चाहिए और इसके लिए सचेत न्यायिक अनुशासन की आवश्यकता है. हमारी चिंता यह है कि इस न्यायिक अनुशासन का पालन नहीं किया गया (न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा बेंच ने). जस्टिस लोकुर ने भी चिंता का समर्थन किया और कहा अगर पुराने फैसले को सही किया जाना था तो बडी बेंच ही इसके लिए सही तरीका है. दरअसल 8 फरवरी को इंदौर विकास प्राधिकरण मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली तीन न्यायाधीशों की बेंच ने यह आदेश दिया था कि जमीन अधिग्रहण के मामले में 2013 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 13(1) के तहत अगर एक बार मुआवजे की राशि को बिना शर्त भुगतान किया गया है और जमीन मालिक ने इसे अस्वीकार कर दिया है तो भी उसे भुगतान माना जाएगा. बेंच ने जमीन पर इंदौर विकास प्राधिकरण की भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को बरकरार रखा था.

इस फैसले ने पहले के तीन जजों के फैसले को पलट दिया. हालांकि इससे पहले चीफ जस्टिस आर एम लोढा की अगवाई वाली तीन जजों की एक अन्य बेंच ने 2014 में पुणे नगर निगम द्वारा भूमि अधिग्रहण को इस आधार पर अलग रखा था. चूंकि जमीन के मालिकों ने मुआवजा नहीं लिया था. बुधवार को सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने तर्क दिया कि इस फैसले से पूरे देश में अराजकता हुई है. नतीजतन उच्च न्यायालयों और इस अदालत द्वारा कई फैसले दिए जा रहे हैं, जो कि ज़मीन मालिकों के अधिकारों को प्रभावित करते हैं. उन्होंने बताया कि इससे पिछले कुछ सालों में तय हुए इस अदालत के कम से कम 5000 फैसलों को वापस लेना होगा और उनकी समीक्षा की जाएगी. यहां एक ही जैसे मामले में दो विरोधाभासी फैसले आए हैं. बेंच ने 7 मार्च को सुनवाई की अगली तारीख तय की है.

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