Analysis: जातीय विभाजन की राजनीति, कहीं मारा न जाए जरूरतमंदों का हक

नई दिल्ली। सरकारी नौकरियों में जिन जातियों को सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान है, वह संसदीय राजनीति के लिए अमृत का काम करता है। देशभर में 1990 के बाद से आरक्षित जातियों की सूची में उलटफेर का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसका अंत कहां जाकर होगा, यह कहना मुमकिन नहीं है। मगर एक बात जरूर है कि जातियों के आगे ‘अति’ और ‘महा’ शब्द जोड़वाने की होड़ लगी हुई, लेकिन वह जिस नौकरी के लिए है, उसकी संख्या बढ़ाने की मांग लगातार पीछे छूटती जा रही है।

केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों के वर्गीकरण के लिए ‘एक्जामींन सब कैटेगोराइजेशन ऑफ ओबीसी कमीशन’ का गठन किया है। उक्त आयोग के सामने पिछड़े वर्गो से जुड़े विभिन्न संगठनों में फिर अपनी जातियों के लिए अति पिछड़ा में शामिल करने व अति पिछड़ा से अलग करने की मांग की होड़ लगी है। मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि आरक्षण के लिए पिछड़े वर्ग को दो हिस्सों में विभाजित किया जाए, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। इसकी वजह से पिछड़े वर्गो की कुल जनसंख्या 52 प्रतिशत में अति पिछड़ों की संख्या 43 प्रतिशत होने के बावजूद सामाजिक न्याय और समावेशी विकास से वंचित रह गए हैं। बिहार में 14 अगस्त 1951 को ही सरकार ने शिक्षा मंत्रलय द्वारा चलाई गई योजनाओं तथा चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी की नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान किया था, जिसके लिए पिछड़ा वर्ग अनुसूची एक तथा दो की सूची तैयार की थी। इसमें वैसी जातियों को अनुसूची एक में सूचीबद्ध किया गया था जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अनुसूचित जाति-जनजाति के समकक्ष थी, लेकिन अछूत नहीं थीं।

इसका मुख्य आधार निजी रोजगार का साधन, कृषि युक्त भूमि, शिक्षा और रहन-सहन का स्तर था। 1 जून 1971 को गठित मुंगेरी लाल कमीशन ने इस सूची को मान्य करते हुए फरवरी 1976 में अनुसूची एक जिसका नामकरण अति पिछड़ा वर्ग किया गया जिसमें 79 जातियों को शामिल करते हुए दो भागों में वर्गीकृत किया। 2 अक्टूबर 1978 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कपरूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरियों के साथ शिक्षण संस्थानों एवं अन्य क्षेत्रों में दोनों वर्गो के लिए आरक्षण का प्रावधान किया, जिसे कपरूरी फामरूला के नाम से जाना जाता है।

इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर 1978 में गठित मंडल आयोग के प्रमुख सदस्य एलआर नायक ने बिहार के आरक्षण फामरूला तथा देशव्यापी अनुभवों के आधार पर अपनी असहमति विवरणी में स्पष्ट रूप से जताई थी कि मध्यवर्ती पिछड़े वर्गो(जिसे बिहार में पिछड़ा वर्ग नामकरण किया गया है) में एक प्रवृत्ति तेजी गति से पनप रही है कि जो व्यवहार या बल्कि र्दुव्‍यवहार उन्हें अति प्राचीन काल से अपने से ऊंची जातियों से मिलता रहा है, वहीं वे अपने भाइयों यानी दलित, पिछड़े वर्गो, अति पिछड़ों के साथ दोहरा रहे हैं। ऐसे असमान समाज में आयोग एहतियात बरते ताकि जरूरतमंद हिस्से विभिन्न सुरक्षा उपायों से वंचित न हो पाएं।

जातिवाद अब भी हम में मौजूद है और अपनी मूल मजबूती को खोए बिना नए रूप धारण करता चला जा रहा है। वस्तुत: कुछ प्रेक्षक तो यह अनुभव करते हैं कि गणतांत्रिक राजनीति और जन संगठनों ने जातिवाद को मंच के बीचो-बीच ला खड़ा कर दिया है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि मध्यवर्ती पिछड़े वर्गो के नेता भी इस पथभ्रम से मुक्त नहीं हैं और न ही वे इतने कल्पनाशील हैं कि वे अति पिछड़े लोगों की तरक्की में सहायक हो सकें। वे केवल पिछड़े वर्गो के नाम पर आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति हथियाने में कुछ असंतुष्ट उच्च जातियों के साथ होड़ लगा रहे हैं। यह एक मानसिक पथ-भ्रष्ट है, इसकी भरपूर निंदा की जानी चाहिए।

इस टिप्पणी के साथ पिछड़े वर्गो की सूची को खंड ‘क’ और ‘ख’ में वर्गीकृत करते हुए 27 प्रतिशत आरक्षण में से अति पिछड़ों के लिए 15 प्रतिशत और पिछड़ों के लिए 12 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करने की सिफारिश उन्होंने की। उन्होंने अति पिछड़ों की जनसंख्या 25.56 तथा पिछड़ों की जनसंख्या 26.44 प्रतिशत बताया। शेष रियायतों के लिए उन्होंने इन्हें अनुसूचित जाति-जनजाति के समकक्ष माना।

मुंगेरी लाल आयोग के प्रतिवेदन और सुप्रीम कोर्ट के मापदंडों की धज्जियां उड़ाते हुए बिहार में राजनैतिक स्वार्थो की पूर्ति के लिए 1990 के बाद सामाजिक न्याय के साथ विकास के नाम पर चलने वाली सरकारों ने बिना आरक्षण कोटा बढ़ाए अति पिछड़ा वर्ग की सूची 79 से बढ़ाकर 112 कर दी और अब पिछड़ा वर्ग की सूची में गिनी चुनी जातियां ही रह गई हैं जिनके लिए आरक्षण का प्रतिशत पूर्ववत ही है। बिहार में तेली, दांगी, तमोली, हलुवाई आदि जो सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से समुन्नत हैं, को पिछड़ा वर्ग से अति पिछड़ा वर्ग में शामिल कर अति पिछड़ा वर्ग में शामिल कर अति पिछड़ा के आरक्षण की मूल अवधारणा से समूल नष्ट करते हुए एलआर नायक की आशंका को सत्य साबित किया, जो अन्यायपूर्ण राजनीति का परिचायक है।

दांगी 1996 के पूर्व सामान्य जाति की श्रेणी में थी, वे अपने को क्षत्रिय मानते हैं। ये आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत हैं। इन्हें 1996 में पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल कर दिया गया। इसी प्रकार राजनैतिक कारणों से 22-04-2015 को पिछड़ा वर्ग आयोग तेली सदस्या कंचन गुप्ता और ‘दांगी’ सचिव की अनुशंसा के आधार पर उन्हें पिछड़ा से हटाकर अति पिछड़ा में शामिल कर दिया गया, जबकि इसी जाति के 5 सदस्य बिहार विधानसभा में, एक कबीना मंत्री के अतिरिक्त दो मेयर, 2 जिला परिषद अध्यक्ष, दर्जनों आइएएस, हजारों डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, सभी शहरों में 80 फीसद थोक और खुरदरा व्यापारी सिनेमा हॉल, अनाज के थोक व्यापारी के साथ साथ देहाती क्षेत्रों में खुरदरा और थोक व्यापारी, मनिलेंडर और जमीन के मालिक हैं।

2006 में पंचायती राज में मुखिया के पद पर इनकी संख्या 112 थी जो अतिपिछड़ा के आरक्षण के सहारे 400 तक पहुंच गई। प्रखंड प्रमुख नगण्य थी, लेकिन अब 68 हो गई है। आबादी के मामलों में इस जाति की संख्या बिहार के पिछड़ा वर्ग के सर्वाधिक जनसंख्या वाली जाति यादव, कोईरी के बाद तीसरे नंबर पर है। कमोवेश यही स्थिति तमोली और हलुआई की है,जो व्यावसायिक वर्ग के हैं। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है और बिहार सरकार को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।

News Source :- www.jagran.com

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